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शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

यूँ ही नहीं पहेलियाँ बुझाओ

सुना है 
प्रेम पहला द्वार है
जीवन का 
सृष्टि का
रचयिता का
रचना का
सृजन का
मोक्ष का 
मगर उसका क्या
जो इनमे से 
कुछ ना चाहता हो
ना जीवन
ना सृजन
ना मोक्ष
और फिर भी
पहुँच गया हो
दूसरे द्वार पर
या कहो 
अंतिम छोर पर
आखिरी द्वार पर
मगर ये ना पता हो
अब इसके बाद 
क्या बचा
कहाँ जाना है
क्या करना है
कौन है उस पार
जिसकी सदायें 
आवाज़ देती हैं
जिसे ढूँढने 
हर निगाह चल देती है
जिसे चाहने की 
हर दिल को शिद्दत होती है
जिसे पाना 
हर रूह की चाहत होती है
ये अंतिम द्वार के उस पार
कौन सा शून्य है
कौन सा अक्स है
कौन सा शख्स है
कौन सा तिलिस्म है
कौन सी उपमा है
कौन सी अदृश्य तरंग है
जो चेतनाशून्य कर देती है
जो ना दिखती है 
ना मिलती है
फिर भी अपनी 
अनुभूति दे जाती है
सब खुद में समाहित करती है
क्या वो प्रेम का लोप है
क्या अंतिम द्वार पर 
प्रेम दिव्यजीवी हो जाता है 
या फिर प्रेम 
सिर्फ पहले द्वार पर ही रुक जाता है
अंतिम द्वार पर तो 
प्रेम का भी प्रेम में ही विलुप्तिकरण  हो जाता है
और सिर्फ 
अदृश्य तरंगों में ही प्रवाहित होता है 
और वहाँ
प्रीत ,प्रेम और प्रेमी तत्वतः एक हो जाते हैं ..........निराकार में परिभाषित हो जाते हैं 
कौन है उस पार ...........एक आवाज़ तो दो
बताओ तो सही ...........अपने होने का बोध तो कराओ 
यूँ ही नहीं पहेलियाँ बुझाओ .........ओ अंतिम छोर के वासी !!!

12 टिप्‍पणियां:

  1. उस पार से बस निराकार प्रेम ही लौट कर आएगा - और कुछ नहीं कोई आवाज नहीं ।

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  2. प्रेम का भाव तो आपको अपने किनारे का बता सकता है, उस पार क्या हो रहा है, कौन जाने।

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  3. उसपार तो है ब्रह्म नाद जो अपने होने का एह्सास कभी नहीं देता . बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति
    latest post क्या अर्पण करूँ !

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  4. कितने विलक्षण विचार और भाव हैँ ये -- मन चिन्तन करने को विवश हो जाता है । बधाई । सस्नेह

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  5. प्रेम के महीन अहसास की सुखद और
    बहुत सुंदर अनुभूति
    उत्कृष्ट प्रस्तुति
    बधाई

    आग्रह है
    केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------

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  6. अंतिम छोर तक सशरीर कौन पहुंचा है .... बहुत दार्शनिक अंदाज़ में लिखी सुंदर रचना ।

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  7. बहुत ही सुंदर दार्शनिक प्रस्तुति...

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  8. प्रेम को आपने बिलकुल ही अलग और बहुत ही अच्छी तरह से परिभाषित किया है.

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आप सब के सहयोग और मार्गदर्शन की चाहत है।