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मंगलवार, 26 नवंबर 2013

मैं स्वयम्भू हूँ


मेरा मैं 
मुझसे बतियाने आया 
अपनी हर अदा बतलाने आया 

मैं 
स्वयम्भू हूँ 
मैं 
अनादि हूँ 
मैं 
शाश्वत हूँ 
हर देश काल में 
न होता खंडित हूँ 
एक अजन्मा बीज 
जो व्याप्त है कण कण में 

मैं 
अहंकार हूँ 
मैं 
विचार हूँ 
मैं 
चेतन हूँ 
स्वयं के शाश्वत होने 
का विचार करता है पोषित 
मेरे अहंकार को 
क्योंकि चेतन भी 
मैं ही हूँ 
विचारों को , बोध को 
सुषुप्ति से जाग्रति की और ले जाना 
यही तो है मेरी चेतनता 
फिर कैसे न हो मुझमे 
सात्विक अहंकार 
मेरे मैं होने में 

जड़ चेतन मेरी ही अवस्था 
ये मेरा ही एक हिस्सा 
ज्ञानबोध चेतना की चेतन अवस्था 
अज्ञानावस्था चेतना की जड़ अवस्था 
मुझसे परे न कोई बोध 
मुझसे परे न कोई और 
मैं ही मैं समाया हर ओर 
दृष्टि बदलते बदलती सृष्टि का 
मैं ही तो आधार हूँ 
तू भी मैं 
मैं भी मैं 
धरती , गगन , जड़ जीव जंतु 
सभी मैं 
फिर कौन है जुदा किससे 
ज़रा करो विचार 
विचार ही ले जाएगा तुम्हें बोधत्त्व की ओर 
और बोध ले आएगा तुममें आधार 
निर्मल मृदु मुस्कान खिलखिलाएगी 
जब मैं की सृष्टि की कली तुम में खिल जायेगी 
फिर खुद से अलग ना पाओगे कुछ 
खुद ही मैं में सिमट जाओगे तब ............

5 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर ....मैं से मैं तक की यात्रा ....

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  2. मैं पूछना चाहता हूँ

    क्या दार्शनिक चिंतन काव्य लेखन से पहले स्पष्ट होता है?

    क्या गद्य रूप में किया दार्शनिक चिंतन कविता रूप में किये दार्शनिक चिंतन से भिन्न होता है?

    क्या दोनों तरह के लेखन से पहले 'चिंतन' हमारे मानस और वाचिक अभिव्यक्ति में साफ़-साफ़ होता है ?

    क्या यह सही नहीं कि कविता मुक्त भाव से आगे बढ़ती है अपने वाह (बहाव) में विचारों को लपेटती चलती है ?



    जब-जब मैंने ऐसे कवितायें पढ़ीं हैं मुझे लगा है लेखन के समय रचनाकार ने सोचा भी नहीं होगा शुरुआत के बाद किन-किन वैचारिक पड़ावों से गुजरते हुए कहाँ और कैसा अंत होगा?


    वन्दना जी, समय पाते ही अपने सुभीते से उत्तर दीजियेगा। आभारी रहूँगा।

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  3. @प्रतुल वशिष्ठ जी सबसे पहली तो ये बात कि ये रचना लिखे मुझे काफ़ी वक्त हो चुका है बस लगायी आज है तो ये उस वक्त की अवस्था का वर्णन है जब मैं उससे कुछ हद तक गुजरी होंगी ……ये नही कहती कि मुझे आत्मसाक्षात्कार हो गया है बल्कि ये एक चिन्तन और अध्ययन की उपज ही हो सकता है कुछ हद तक खुद का उस अवस्था से गुजरना भी मगर पूर्णावस्था नहीं पायी है इसलिये नही कह सकती खुद को पूर्ण मगर हाँ कुछ हद तक जिन अवस्थाओं से गुजरती हूँ , महसूसती हूँ तभी लिपिबद्ध कर पाती हूँ क्योंकि खुद के मरे बिना जैसे स्वर्ग नही मिलता है वैसे ही खुद की अनुभूति के बिना लेखन मे भी भाव नही उतरता मेरा ऐसा ख्याल है ………मै नही जानती गद्य या पद्य मे क्या होता है बस इतना जानती हूँ जब कुछ दिन एक अवस्था में रहती हूँ , वो मुझे कचोटती है, चिन्तन की ओर धकेलती है और जब कुलबुलाहट इतनी बढ जाती है कि सहन नही होती तब लेखन के माध्यम से निकलती है ।

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  4. न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता,
    डुबोया मुझको होने ने, न होता गर तो क्या होता...

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  5. ACHCHHA LAGA ...MAN KEE GANTHHEN KHOLTI HUI RACHNA .AABHAR

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