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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

अब कौन रंग रांचू रे…




मनमोहक रूप नैनों में समाया
देख तेरे लिए मैंने जग को बिसराया
अब तू भी अपना बना ले मुझे
देख तेरे लिए मैंने खुद को भुलाया 


मै तो हो गयी श्याम की दीवानी अब कौन रंग रांचू रे……



हाय मोहन ! तुम ऐसे ही बस जाओ ना नैनन मे 

मै बावरी तुम्हें निहारूँ नित नित मन कुंजन मे


देखूं छवि चहुँ ओर तिहारी मै मन वृन्दावन मे 

हाय श्याम!क्यों मिल नही जाते बृज गलियन मे


 दृग चातक भये राह तकत श्याम 

अब बसो मेरे पलकन की ओटन मे


मै मीरा सी नाचूँ दीवानी भीज श्याम रंगन मे 


तुम्हरे प्रेम की बनूँ मै मूरत तिहारे मन दर्पण मे 


मै तो हो गयी श्याम की दीवानी अब कौन रंग रांचू रे……

मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ …………"दर्द "हो मोहन !


5) 

यहाँ तक कि
 
मीरा के प्रेम की तो
सभी दुहाई देते हैं
मगर उसे भी
ना तु्मने बख्शा
मीरा तुम्हारा नाम ले
गली गली भटकती रही
मगर चैन की सांस ना ले सकी
कभी विष का प्याला
तो कभी सांप पिटारा
उसे भेंट मिला
तो कभी देश निकाला
कहो तो मीरा का
कौन सा क्षण था जो
सुखकर रहा
मगर वो प्रेम दीवानी
प्रेम की घूँट भर चुकी थी
अपना सर्वस्व तुम्हें
मान बैठी थी
इसलिये उफ़ नहीं करती थी
मगर थी तो आखिर
इंसान ही ना
आखिर कब तक
लड सकती थी
क्योंकि
तुमने तो ठान रखी थी
इसे चैन से नही रहने दूँगा
और तब तक उसे दर्द देते रहे
जब तक कि  उसकी
दर्द सहने की शक्ति ना चुक गयी
तब कही जाकर
अन्त मे मीरा की कारुणिक पुकार पर
और खुद को प्रमाणित करने को
स्वंय को सिद्ध करने को
तुमने उसे खुद मे समाहित किया
ताकि तुम्हारे नाम का
गुणगान होता रहे
मगर सोचना ज़रा
ये कैसा प्रेम का बन्धन हुआ
जिसमे सिर्फ़ इकतरफ़ा प्रेम
ही नि्भाया गया
मगर तुम पर ना कोई
असर हुआ
तुम तो आखिरी पडाव पर
ही आते हो
और अपने अस्तित्व को बचाते हो
वरना तो उम्र भर
तुम दर्द और पीडा की
अभिव्यक्ति बन
नसों मे रम जाते हो


6)
 

ये तो तुमने भक्तों का हाल किया
 
और जो अभक्त थे
जिन्होने ना कभी
तुम्हारा नाम लिया
जिन्होने ना कभी
तुम्हारा गुणगान किया
सदा द्वेष मे ही जीवन जीया
कोई भी ना पुण्य कर्म किया
उन्हें एक पल में
दर्शन दे देते हो
और जीवनमुक्त कर देते हो
ये तो भेदभाव ही हुआ
जिसने तुम्हें चाहा
उसने दर्द पाया
और जिसने नही चाहा
वो ही मुक्त हुआ
फिर चाहे वो अजामिल हो
या गज और ग्राह हो

अजामिल को देखो
 
तुमने कैसे तारा
जो सारी उम्र
पाप कर्म मे लिप्त रहा
जिसने हर बुरा कर्म किया
सिर्फ़ एक नाम उसने लिया
वो भी अपने बेटे को पुकारा
तो भी तुमने उसे तार दिया
क्या तुम नही जानते थे
कि इसने अपने पुत्र को
है पुकारा
मगर खुद को  सिद्ध करने के लिये ही
तुमने उसका उद्धार किया
और जिसे युगों बीत गये पुकारते
उसका ना उद्धार किया
और दूसरी तरफ़ देखो
उस गज को
जो वासनाओं मे लिप्त
महाकामी हाथी था
उसे भी तुमने
उसकी एक पुकार पर
ग्राह से छुडाया था
और दोनो का उद्धार किया था
तो इससे कहो तो मोहन
क्या सिद्ध होता है
जो तु्म्हें चाहता है
वो ही दर्द पाता है
और जो नहीं चाहता
वो भवसागर पार
यूँ ही हो जाता है
और ज़िन्दगी भी
खुशी से गुजारता है
ये कैसा तुम्हारा खेल हुआ
जो भक्त की पीडा से आरम्भ हुआ
और पीडा पर ही अन्त हुआ

अब इससे बढकर 

और क्या प्रमाण दूँ तुम्हें
बस चाहने वालों के प्रेम से ही
अलंकृत हो तुम
आज मैं भी तुम्हें अलंकृत करती हूँ
यूँ तो दुनिया ने तुम्हे
बहुत नाम दिये
मगर एक नाम
मैं भी देती हूँ
जो किसी ने नहीं दिया होगा
ओ चाहने वालों को
पीडा देने वाले
निष्ठुर, निर्मोही
तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ …………"दर्द "हो मोहन !

गुरुवार, 3 अप्रैल 2014

सखि री ,बस नैनों से नीर बहे


मन के पनघट सूखे ही रहे 
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे 

न कोई अपना न कोई पराया 
जग का सारा फ़ेरा लगाया 
सूनी अटरिया न कोई पी पी कहे 
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे 

इक बंजारे का भेस बनाया 
जाने कौन सा चूल्हा जलाया 
खा खा टुकडा कबहूँ न पेट भरे  
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे 

जोगन का जब जोग लिया 
तन मन उस रंग रंग लिया 
इक  बैरागन भयी बावरी 
प्रीत अटरिया न श्याम बंसी बजे 
सखि री ,बस नैनों से नीर बहे