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सोमवार, 26 मई 2014

आत्मसंतुष्टि या विचलन ?

मैं रहूँ न रहूँ क्या फ़र्क पडता है 
दुनिया न रुकी है न रुकेगी 
फिर पहचान चिन्हित करने भर से क्या होगा 
क्या मिलेगी मुझे आत्मसंतुष्टि 
क्या देख पाऊँगी मैं अक्स आईने में 
सुना है 
मिट जाने के बाद आईने टूट जाया करते हैं 
फिर किस प्रतिबिंब की तलाश में भटकन जारी है 
फिर पगडंडियाँ जो छुट गयीं पीछे 
कितनी ही पुरजोर कोशिश करूँ 
क्या संभव होगा पहचानना उन्हें 
क्या संभव होगा पहचानना अपने ही  पदचिन्हों को 
स्वप्न में जो दिखे तो कम से कम याद तो रहता है 
मगर 
अस्तित्व के मिटने पर कैसे संभव है 
खंगालना चेतना के अंश को 
इसलिए लगता है 
आत्मसंतुष्टि महज कोरा लफ्ज़ भर है 
जिस के हर ओर छोर पर भी 
एक व्याकुलता का विचलन जारी रहता है 
जब तक न प्रमाणिकता मिले स्वयं के होने की 
तब तक  
अवधारणाएं बदलती ही रहती हैं और जारी रहता है  ………… विचलन !

फिर आत्मसंतुष्टि हो या विचलन 
अमूर्त अवधारणायें हैं दोनों 
और मैं हूँ मूर्त 
फिर कैसे संभव है 
अमूर्त और मूर्त का सम्बन्ध 
ब्रह्म और जीव जैसे 
जब तक न खोज को व्यापक दिशा मिले 
और निराकार साकार हो जाए 
तब तक 
पहचान चिन्हित करना महज दिशाभ्रम भर ही तो है !

वक्त के तराजू में 
खुद को तोलती मैं 
पलड़ों का अनुपात देख रही हूँ 

शायद मिल जाए कहीं कोई संतुलन का काँटा भृकुटि के मध्य में .......... 

शनिवार, 17 मई 2014

कहो तो ओ कृष्ण



तुमने प्रेम भी दिया और ज्ञान भी 
फिर भी रही मैं मूढ 
क्या वैराग्य का सम्पुट अधूरा रहा 
या मेरे समर्पण में कमी रही 
जो रहे अब तक दूर ......कहो तो ओ कृष्ण 

तेरी सोन मछरिया तडप रही है 
भटक रही है 
न कर निज चरणन से दूर

प्रेमरस के प्यासों का इतना इम्तिहान भी अब ठीक नहीं मोह्न !

मंगलवार, 6 मई 2014

आस्था के जंगल में……एक कशमकश उत्तर की चाहत में भटकती है!!!


आस्था के जंगल में उगा 
विश्वास का वटवृक्ष 
जब धराशायी होता है 
जाने कितने पंछी 
बेघर हो जाते हैं 
जाने कितने घोंसले टूट जाते हैं 
जाने कितनी मर्यादाएं भँग हो जाती हैं 
छितरा जाता है पत्ता पत्ता 
और बिखर जाता है जंगल के कोने कोने में 
कभी न जुड़ने के लिये 
फिर कभी न शाख पर लगने के लिये 

विश्वास के टूटते ही 
धूमिल हो जाती हैं 
सभी संभावनाएं भविष्य की 
और आस्था बन कर रह जाती है 
महज ढकोसला 
जहाँ चढ़ते थे देवता पर 
फूल दीप और नैवैद्य 
वहीँ अब खुद की अंतश्चेतना 
धिक्कारती है खुद को 
झूठ और सच के पलड़े 
लगते हैं महज 
आस्था का बलात्कार करने के उपकरण 

 धर्मभीरु मानव मन
नहीं जान पाता सत्य के 
कंटीले जंगलों का पता 
जहाँ लहूलुहान हुये बिना 
पहुंचना सम्भव नहीं 
और दूसरी तरफ़ 
झूठ करता है अपनी 
दूसरी परंपरा का आह्वान 
तो सहज सुलभ हो जाती है आस्था 
मानव मन का कोना 
'चमत्कार को नमस्कार '
करने में विश्वास करने वाला 
चढ़ जाता है आस्था की वेदी पर बलि 
मगर नहीं कर पाता भेद 
नहीं कर पाता पड़ताल 
कैसे दीवार के उस तरफ़ 
कंक्रीट बिछी है 
और उसकी आस्था ठगों के 
हाथों की कठपुतली बनी है 
वो तो बस महज एक वाक्य को 
मान लेता है ब्रह्मवाक्य 
क्योंकि ग्रंथों पुराणों मे वर्णित है 
इसलिए धर्मभीरुता का लाभ उठा 
हो जाता है शोषित कुछ ठगो की 
जो बार बार यही समझाते हैं 
यही बतलाते हैं 
गुरु से बढ़कर कोई नही 
दीक्षा गुरु सिर्फ़ एक ही है होता 

प्रश्न यहीं है खड़ा होता 
आखिर वो कहाँ जाये 
किससे  कहे अपने मन की व्यथा 
जब दीक्षा गुरु ही 
विश्वास के वृक्ष पर 
अपनी हवस की कुल्हाड़ी से वार करे 
अपनी कामनाओं की तलवार से प्रहार करे 
पैसा पद और लालच के लिये 
अपने अधिकारों का दुरूपयोग करे 
तब कहाँ और किससे कोई शिकायत करे 
कैसे उसे गुरु स्वीकार करे 
जिसने उसकी आस्था के वृक्ष को 
तहस नहस किया 
कैसे उसके लिये मन में पहले सा 
सम्मान रख प्रभु सुमिरन किया करे 

क्या सम्भव है उसे गुरु स्वीकारना 
क्या सम्भव है पुराणों की इस वाणी को मानना 
कि दीक्षा गुरु तो सिर्फ़ एक ही हुआ करता है 
जो कई कई गुरु किया करते हैं 
घोर नरक मे पड़ा करते हैं 
मगर कही नहीं वर्णित किया गया 
यदि गुरु ने जघन्य कर्म किया 
तो कैसे उसके द्वारा दिये मन्त्र में 
शक्ति हो सकती है 
जो खुद ही गलत राह का राही हो 
उसकी बात मे कहाँ दम हो सकता है 

जिसकी आस्था एक बार खंडित हो गयी हो 
कैसे उसकी नये सिरे से जुड़ सकती है 
कैसे किसी पर फिर विश्वास कर 
एक और आस्था के वटवृक्ष को 
उगाया जा सकता है 
गर कोशिश कर किसी पर 
विश्वास कर नये सिरे से कोई जुड़ता है 
तो पुराणों मे वर्णित प्रश्न उठ खड़ा होता है 
'एक ही दीक्षा गुरु होता है '
ऐसे में 
साधक तो भ्रमित होता है 
कहाँ जाये 
किससे मिले सही उत्तर 

प्रश्न दस्तक देता प्रहार कर रहा है 
क्या पुराण में जो पढ़ा सुना 
उसे माने या 
जो आँख से देख रहा है 
और जिसे उसकी अंतरात्मा 
नहीं स्वीकारती 
उस पर चले 
ये कैसा धर्म  के नाम पर 
होता पाखण्ड है 
जिसने मानवता को किया हतप्रभ है 

सुना है 
धर्म तो सत्य का मार्ग दिखलाता है 
फिर ये कैसा मार्ग है 
जहाँ आस्था और विश्वास से परे 
मानवता ही शोषित होती है 
और उस पर चलने वाले को 
धर्मविरुद्ध घोषित करती है 

सोच का विषय बन गया है 
चिंतन मनन फिर करना होगा 
धर्म की परिभाषाओं को फिर गुनना होगा 
वरना 
अनादिकाल से चली आ रही 
संस्कृति से हाथ धोना होगा 


झूठ सच 
धर्म आस्था विश्वास 
गुरु शिष्य संबंध 
महज आडम्बर न बन जाये 
वो वक्त आने से पहले 
विश्लेषण करना होगा 
और धर्म का पुनः अवलोकन करना होगा 
उसमे वर्णित संस्कारों को 
पुनः व्यख्यातित करना होगा 


तर्क और कसौटियों की गुणवत्ता पर 
खरे उतरे जाने के बाद 
फिर शायद एक बार फिर आस्था का वृक्ष अपनी जड़ें जमा सके 
और मेरे देश की संस्कृति और संस्कार बच सकें 

एक कशमकश उत्तर की चाहत में भटकती है ………

शुक्रवार, 2 मई 2014

आवाज़ दे कहाँ है ..........




मैं तो भयी रे बावरिया
बनी रे जोगनिया
श्याम तेरे नाम की
श्याम तेरे नाम की
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

गली गली ढूँढूँ

अलख जगाऊँ
तेरे नाम पर
मिट मिट जाऊँ
मैं हो के बावरिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

आँगन बुहारूँ 

या चूल्हा जलाऊँ
नित नित तेरा
दर्शन पाऊँ
मैं तो बन के दिवानिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........

एक आस ही

जिला रही है
ये संदेसा पहुँचा रही है
तेरे चरणों से
लिपट लिपट जाऊँ
मैं बन के धूल के कणिया
आवाज़ दे कहाँ है
दीवानी तेरी यहाँ है ...........


(अपने चरण कमल दरस दीवानी का 
बिहारी जी यहीं से नमन करो स्वीकार )