तुम्हें पाने और खोने के बीच
तुम्हारे होने और न होने के बीच
डूबती उतराती मेरे विचारों की नैया
मेरा भ्रम नहीं तुम्हारा निर्विकल्प संदेश है
जो मैने गुनगुनाया तब तुम्हें पाया ………ओ कृष्ण !
अखण्ड समाधिस्थ की स्थिति में स्थितप्रज्ञ से तुम
हो जाते हो कभी कभी आत्मसात से
तो कभी विलीन इतने दूर
कि असमंजस की दिशायें
कुलबुलाकर छोडने लगती हैं धैर्य के संबल
निष्ठा श्रद्धा विश्वास और प्रेम के तराजू पर
काँटे कभी समस्तर पर नही पहुँचते
तुम्हारा ज्ञान हो जाता है धराशायी प्रेम के अवलंबन पर
कहो तो कैसे तुममें से तुम्हें जुदा करूँ
कैसे खुद को फ़ना करूँ
जो निर्बाध गति हो जाए
प्रेम प्रेम में समाहित हो जाए .......कहो तो ओ कृष्ण !
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/09/blog-post_13.html
जवाब देंहटाएंबहुत खूब...सुन्दर...
जवाब देंहटाएंकृष्ण प्रेम से सराबोर पंक्तियां ..सुंदर भावपूर्ण पंक्तियां
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-09-2014) को "मास सितम्बर-हिन्दी भाषा की याद" (चर्चा मंच 1736) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हिन्दी दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
Sundar..Premmayi rachna !
जवाब देंहटाएंवाह...सुन्दर और सार्थक पोस्ट...
जवाब देंहटाएंसमस्त ब्लॉगर मित्रों को हिन्दी दिवस की शुभकामनाएं...
नयी पोस्ट@हिन्दी
और@जब भी सोचूँ अच्छा सोचूँ
prem mein lipt rachna...
जवाब देंहटाएंmeri nayee post pe aapka swaagat hai..
http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2014/09/blog-post.html