जाने कितने युग गुजर गये व्यक्त करते करते मगर क्या कभी हुआ व्यक्त ?पूरी तरह क्या कर पाया कोई परिभाषित ? नहीं , प्रेम- विशुद्ध प्रेम परिभाषाओं का मोहताज नहीं होता तो कैसे उसे उल्लखित किया जा सकता है ? कैसे उसके बारे में दूसरे को समझाया जा सकता है ?
जब आप प्यार में होते हो तो वो शारीरिक होता है प्यार इंसान सभी से करता है फिर वो अपने हों या पराये या पेड पौधे , पशु या पक्षी । इंसान की फ़ितरत है प्यार करना । प्यार में भी अन्तर आ जाता है कहीं वो दयाभाव से होता है तो कहीं करुणा से तो कहीं किसी अपने के प्रति अपार स्नेह के रूप में मगर प्रेम उससे बहुत आगे की श्रृंखला में आता है जहाँ पहुँचने के बाद और कुछ पाना शेष न रहे , कोई आपमें इच्छा न रहे , सब एक में ही समाहित हो जाए या आप का" मैं " मिट जाए बस एक वो ही नज़र आए आप उसके अक्स में ऐसे सिमट जाएं कि दो होने का अहसास ही गुम हो जाए वो होता है अलौकिक प्रेम जो कम से कम इंसानों के बीच तो नहीं दिखता या मिलता। इंसान तो वशीभूत होता है अपनी जरूरतों के और जब आप किसी के साथ रहते हैं तो वो आपकी आदत बन जाता है और जो आदत बन जाए अगर उससे आपको बिछडना पडे हमेशा के लिए तो वहाँ एक ऐसा ज़ख्म बन जाता है जो जल्दी से नहीं भरता मगर एक दिन भरता जरूर है क्योंकि ये इंसान का स्वभाव है या उसकी स्मृति ऐसी है कि उसे उन संबंधों और रिश्तों को भुलाना पड जाता है क्योंकि जो चला गया वो वापस नहीं आ सकता जानता है वो ये सत्य इसलिए उसे उस सत्य को स्वीकारने में वक्त लगता है लेकिन जब स्वीकार लेता है तो स्मृति पर भी धूल गिरने लगती है और अब उसकी याद की वेदना इतना नहीं कचोटती । कोई याद दिलाए तो याद आता है तब भी उस स्तर तक नहीं उतरता जिस पर वो उससे बिछडते वक्त होता है जो यही सिद्ध करता है कि इंसान का प्रेम सिर्फ़ शारीरिक स्तर तक ही होता है और वो भी किसकी उसके जीवन में कितनी अहमियत है या थी सिर्फ़ उस स्तर तक ही लेकिन ये कहा जाए कि दो इंसानों में अलौकिक विशुद्ध प्रेम होता है तो एक नामुमकिन सा ख्याल भर लगता है क्योंकि आज के भौतिक युग में कहाँ इतना वक्त है इंसान के पास , उसे आगे बढना है , जीवन चलता रहता है तो वो नहीं बँधा रह सकता निराशा के एक ही खूँटे से और आगे बढने के लिए जरूरी होता है अतीत की परछाइयों से खुद को मुक्त करना ।
ऐसे में कैसे आज के भौतिक युग में इंसान विशुद्ध प्रेम के सहारे जीवनयापन कर सकता है और यदि विशुद्ध प्रेम किसी का होगा भी तो वो सिर्फ़ प्रभु से होगा इंसान से नहीं । अब प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में प्रभु से विशुद्ध प्रेम होना ही प्रेम की उच्चतम अवस्था है ? क्या प्रेम को मिल जाता है उसका स्वरूप ? क्या इस तरह हो जाता है प्रेम पूरी तरह व्यक्त ? क्या 'प्रेम ही खुदा है और खुदा ही प्रेम' को चरितार्थ किया जा सकता है इस तरह ? क्योंकि कभी कभी लगता है कि प्रेम भी जीवनयापन के लिए मात्र एक उपकरण है ताकि इंसान इसका अवलम्बन ले जीवन जी सके वरना देखा जाए तो ये जानने की प्रक्रिया का अंत तो खुद पर ही होता है जब इंसान अपने अन्तस में उतरता है , खुद को पहचानने की कोशिश करता है और जिस दिन खुद को जान लेता है प्रेम , ईश्वर , संसार सब मिथ्या हो जाते हैं उसके लिए क्योंकि तब उसे लगता है जो कुछ है सिर्फ़ वो ही है , सब उसी की दृष्टि का विलास है उससे इतर कुछ भी तो नहीं है और जब ये बोध हो जाता है तो खत्म हो जाता है संसार ,प्रेम व उसका अस्तित्व । जो यही सिद्ध कर रहा है कि प्रेम भी मात्र एक उपकरण भर है जब तक कि इंसान को बोध न हो जाए फिर एक अलौकिक आनन्द में समाया इंसान अपने मौन में ऐसा समाहित हो जाता है जहाँ दो का भास खत्म हो जाता है और अपनी नैसर्गिक आनन्दानुभूति में डूब जाता है मगर जब तक न इस हद तक पहुँचता है तब तक जीवन जीने के लिये प्रेम और प्यार के उपकरणों का प्रयोग करता है और एक भटकाव में जीता रहता है ।
प्रेम एक विशुद्ध भाव है , जिसकी गहराई का कोई मूल्यांकन किया ही नही जा सकता
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