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गुरुवार, 28 मार्च 2013
क्योंकि हाथ मे चाबु्क लेकर तो कोई भी मदारी बन सकता है …………
मोहन !
तुमने असमंजस में मुझको डाला
और अपने ही वजूद पर प्रश्नचिन्ह लगवा डाला
एक तरफ़ तुम खुद को
निर्विकार , निर्लेप , निर्द्वंद बताते हो
जिसका कोई मन नहीं होता
जो भक्तों या प्रेमियों की चाह पर ही
उसी रूप में आकार लेता है
और जैसा वो बनाते हैं
उसी में ढल जाता है
दूसरी तरफ़ इसी का उलट
करते दिखते हो
जब एक से बहुत होने का तुम्हारा मन होता है
तब सृष्टि की रचना करते हो
तो बताना ज़रा छलिया
मन तो तुम्हारे भी हुआ ना
क्यों फिर तुमने अपनी इच्छा को
भक्त या प्रेमी की इच्छा से जोड दिया
क्या ये मानने से तुम छोटे हो जाते ?
मोहन ! मानना होगा तुम्हें इस बात को
क्योंकि
अकेलापन और उसकी उदासी
कैसे वजूद मे घुन की तरह लग जाती है
ये तो शायद तुमसे बेहतर कोई नहीं जानता होगा
क्योंकि
तुम भी तो सारे ब्रह्मांड में तन्हा ही हो
कोई नही है तुमसे बतियाने को
कोई नही है तुम्हारा हाल जानने वाला
कोई नहीं है तुमसे अपनी कहने
और तुम्हारी सुनने वाला
और जब अपने अकेलेपन से
तुम उकता जाते हो
तब बहुत होने का तुम्हारा मन यूँ ही नहीं होता मोहन
इसका भी एक कारण है
तुम्हें भी एक प्यास है
एक चाह है
एक ख्वाहिश है
एक जिज्ञासा है
एक तडप है
एक दर्द है
एक बेचैनी है
कि कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हें चाहे
कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हारे लिये जीये और मिट जाये
कोई तो हो जो सिर्फ़ तुम्हारा हो
और तुम इसी चाह की पूर्णता के लिये
रच बैठते हो एक संसार अपनी चाहत का
मगर क्या कभी सोचा है तुमने
हम तुम्हारे बनाये प्राणी
तुम्हारी बनायी सृष्टि में
तुम्हारे ही हाथों की कठपुतली होते हैं
तुम जैसे चाहे डोर घुमा देते हो
जैसे चाहे जिसे जिससे जुदा कर देते हो
जैसे चाहे जिसका दिल तोड देते हो
और हम विवश प्राणी तुम पर आक्षेप
भी नहीं लगा सकते क्योंकि
तुमने तो सिक्के के दोनो पहलू
अपने ही हाथ में रखे हैं
और कर्मों का लेखा कह तुम खुद से पल्ला झाड लेते हो
और हम तुम्हारी चाहतों पर कुर्बान होते
वो बलि के बकरे हैं जिन्हें पता है ज़िबह होना है यूँ ही रिसते रिसते
अच्छा ज़रा सोचना
क्या तुम जी सकते थे ऐसा जीवन?
देखो, हमें पता है......... फिर भी जीते हैं
हर ख्वाहिश, हर चाहत , हर मजबूरी, हर वेदना से आँख मिलाते हुये
सुना है बहुत कोमल हो तुम :)
क्या सच में ?
मुझे तो नहीं लगे
तभी तो अपनी बनायी दुनिया में
कैसे सबका जीना मुहाल करते हो
और इतना सब झेलने के बावजूद
कोई बेचारा प्रेम का मारा तुम तक पहुँच भी जाता है
जो तुम्हारी सारी शर्तों का पालन करता हुआ
सिर्फ़ तुम्हें चाहता है
उसे भी कब परीक्षा के नाम पर सूली पर चढा देते हो
पता ही नहीं चलता
और वो बेचारा …………जानते हो
उस पल कहीं का नहीं रहता
ना दुनिया का ना तुम्हारा
और वो पल उसे ऐसा लगता है
जैसे किसी ने उसे ठग लिया हो
जैसे बीच मझधार में माझी छोड गया हो
और चप्पू चलाना भी वो ना जानता हो
जैसे किसी धनी की सारी पूँजी
एक ही पल में स्वाहा हो गयी हो
कभी सोचा है ………क्या गुजरती होगी उन पर उस पल?
वैसे एक बात और कहनी है तुमसे
तुम कहते हो या तुम्हारी गीता या अन्य ग्रंथ कहते हैं
ये सारी दुनिया भ्रम है
सच नहीं है ………जो भी तुम आँखों से देख रहे हो
ये एक निद्रा है जिसमें तुम सो रहे हो
जिस दिन जागोगे अपने अस्तित्व को पहचान लोगे
उसी दिन खुद को पा लोगे
इसलिये यहाँ किसी से मोह मत करो
बस कर्तव्य समझ अपना कर्म करो
जैसे किसी नाटक में कोई कलाकार करता है
और नाटक के खत्म होने पर फिर अपने रूप में होता है
मान ली तुम्हारी बात
मगर ये तो सोचना ज़रा
नाटक मे काम करते पात्र को पता होता है
वो नाटक कर रहा है
वो उसका मात्र पात्र है
हकीकत में तो वो दूसरा इंसान है
मगर हम?
क्या हमें पता है ये सच्चाई?
क्या कराया तुमने कभी ये आभास?
अरे हम तो जब से पैदा हुये
जो देखा उसे ही सत्य माना
फिर कैसे इस जीवन को नाटक मान लें ?
कैसे आँखों का भ्रम मान लें?
कैसे झूठ मानें जब तक ना आभास हो हकीकत का?
क्या कभी सोचा तुमने?
नहीं ना ………तुम क्यों सोचते
तुम्हें तो अपनी चाहतों की पूर्णाहूति के लिये
कुछ खिलौनों की जरूरत थी सो तुमने पूरी की
मगर एक बात नहीं सोची
कि जैसा तुम कहते हो उसके अनुसार
यदि हम झूठ हैं , हमारा वजूद झूठा है
ये संसार झूठा है, नश्वर है
तो फिर कैसे तुम एक झूठ से सत्य की चाह रखते हो
जो चीज़ ही झूठी होगी वो कैसे सत्य सिद्ध होगी?
वो कैसे सच दिखा सकती है जिसका आईना ही झूठा हो?
नहीं समझे मेरी बात तो सुनो
तुम्हारी चाहत की ही बात कह रही हूँ
तुम्हें भी चाह होती है ना
कोई सिर्फ़ तुम्हें चाहे
फिर चाहे वो भक्त बने या प्रेमी
माँ यशोदा हो या तुम्हारी गोपियाँ
मीरा हो या राधा
मगर मोहन ! विचारना तो
हम सब तुम्हारे बनाये मिथ्या संसार की मिथ्या वस्तुयें ही तो हैं
फिर कैसे तुम्हें अखंड, अनिर्वचनीय, शाश्वत प्रेम का सुख दे सकती हैं ?
शायद कभी सोचा नहीं होगा तुमने
या किसी ने ये सत्य नहीं कहा होगा तुमसे
और तुम ना जाने कितने कल्पों से
एक ही रचनाक्रम में लगे हो ये सोचते
या खुद को भरमाते
कि हाँ मेरे भक्त सिर्फ़ मुझे चाहते हैं
जबकि सभी जानते हैं ……झूठ के पाँव नहीं होते
और रेत में पानी का आभास किसी मरीचिका से जुदा नहीं होता
फिर भी तुम इस भ्रम के साथ जीना चाहते हो तो तुम्हारी मर्ज़ी
हमने तो आज उस हकीकत से पर्दा हटा दिया जिसका शायद तुम्हें भी ज्ञान नहीं था ………
क्या सच नहीं कहा मैने मोहन ?
जवाब हो तो देना जरूर ………इंतज़ार रहेगा!!!
अरे रे रे ………ये आत्मश्लाघा जैसा कुछ नही है
ना किसी बात पर गर्व है हमें
हम जानते हैं अपनी हैसियत , अपना वजूद
जो क्षणिक है
तुम्हारे हाथों की कठपुतली है
फिर भी ये ख्याल उभरा है तो सोचा तुम्हें बता दूँ
शायद तुम समझ पाओ इसके गहन अर्थ ………
हमारा पानी के बुलबुले सा क्षणभंगुर जीवन ही सही
मगर हम जिस झूठ में जन्म लेते हैं (तुम्हारे कहे अनुसार "झूठ" यानी ये संसार ये जीवन)
उस झूठ को भी सार्थकता से जीते हैं एक सत्य समझकर
क्योंकि हमारे लिये तो यही सत्य है
जब तक हमें पता ना चले कि हम किसी कहानी के पात्रभर हैं
और उस पर तुम्हारी माया के प्रहार झेलते हैं
जिसमें तुम खुशियों की सब्ज़ी में
किसी ना किसी गम की बघार लगाने से बाज नही आते
फिर भी जीवटता से जी ही लेते हैं हम
तुम्हारे झूठे संसार को सत्य समझकर
क्या तुम कर सकते हो ऐसा ? ज़रा सोचना
क्योंकि हाथ मे चाबु्क लेकर तो कोई भी मदारी बन सकता है …………
मंगलवार, 26 मार्च 2013
कौन सा रंग तोहे भाये मोहे समझ न आये
कौन सा रंग तोहे भाये
मोहे समझ न आये
मैं तो जानूं सिर्फ प्रेम को नाता
तुम ही तो अडचनें लगाये
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
लोभ मोह अहंकार की बेड़ियाँ
कैसे तुझे दीख जाएँ
मैं तो जानूं प्रेम को नाता
आ प्रेम को रंग में रंग जाएँ
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
कैसे कैसे तू जाल बिछाए
मोह माया में मोहे अटकाए
फिर चाहे तेरे रंग, रंग जाऊं
सब कुछ छोड़ द्वार तिहारे आऊँ
तू फिर भी ना अपनाए
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
मैंने ओढ़ी प्रीत चुनरिया
जिसमे लागी अंसुवन लड़ियाँ
और ना राह कोई नज़र मोहे आये
मन पर इक श्याम रंग ही चढत है
दूजा न कोई रंग मोहे भाये
अब बता जरा कौन से रंग में
चूनर रंग लूँ जो तेरे मन को भाये
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
मोहे समझ न आये
तुमने मुझको मुझसे छीन लिया है
अपने वश में मन मेरा किया है
जीवन की अब सिर्फ रीत निभाती हूँ
प्रीत तो सिर्फ तुम्ही से निभाती हूँ
फिर भी मेरी प्रीत तुझे समझ ना आये
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
मोहे समझ न आये
मन का जोग ले लिया है
सिर्फ तन ही दुनिया को दिया है
फिर भी संदेह के बादल छितराए
तुझे इतना भी न भाये
बता फिर कैसे हम जी पाएं
सांवरे
कौन सा रंग तोहे भाये
मोहे समझ न आये
शुक्रवार, 22 मार्च 2013
सखी री ............बस ऐसो फाग खिला दे
सखी
सुना है फाग है आया
पर मेरा मन न हर्षाया
प्रीतम मेरे पास नही हैं
कहो कैसे फाग मनाऊँ
प्रीत की होरी में सखी री
कौन सा रंग भरूँ
जो रच बस जाए
उनके अंतरपट पर
छूटे ना सारी उमरिया
मैं दीवानी उनके दीदार की
मैं मस्तानी उनके प्यार की
किस विधि खेलूँ होरी
सखी री
कोई संदेसा तू ही ला दे
मोहे उन संग फाग खिला दे
प्रेम रस में मैं भीज जाऊं
ऐसो मो पे रंग वो डार दें
सखी री .............
कोई ऐसो जतन करा दे
पाँव पडूँ तोरे , करूँ निहोरे
मुझे पी से मेरे मिला दे
मुझमे प्रेम रस छलका दे
मुझे उनकी दीवानी बना दे
जो कोई देखे मुझको सखी री
मुझमे उनकी सूरतिया दिखा दे
मोहे ऐसो फाग खिला दे
अबकी मोहे ऐसो फाग खिला दे
तन मन भीजे
प्रेम ना छीजे
कोई ऐसो चूनर ओढा दे
सखी री ..........प्रीतम से मिलवा दे
सखी री ..........प्रेम झांझरिया बजा दे
सखी री ..........रंग मुझमे है मैं रंग में हूँ
कोई पता ना पावे
मो पे ऐसो रंग चढ़ा दे ........
सखी री .........मुझे उनकी बावरिया बना दे
सखी री ..........मेरो फाग रंगों से महका दे
मेरो सांवरिया मिलवा दे
चाहे कौड़ी को बिकवा दे .....मोहे
सखी री ............अब की ऐसो फाग खिला दे
जन्म जन्म की साध पूरी करवा दे
मोहे श्याम रंग में रंगवा दे .........
सखी री ............बस ऐसो फाग खिला दे
उदंती के मार्च अंक में प्रकाशित निम्न लिंक पर
http://www.udanti.com/2013/03/blog-post_1220.html
शनिवार, 16 मार्च 2013
सुनो कन्हाई तुम्हारी प्रीत ना हमें रास आयी
सुनो कन्हाई
तुम्हारी प्रीत ना हमें रास आयी
इकतरफ़ा प्रेम धुन की जो मुरली तुमने बजायी
उसी धुन ने हममें भी ये बात जगायी
जो तुम चाहो मोहना किसी एक का सर्वस्व
तो क्यों ना हम भी चाहें तुमसे तुम्हारा सर्वस्व
जो तुम चाहो मोहना कोई बिना शर्त तुम्हें चाहे
तो क्यों ना यही चाहत हमारे भी मन में जागे
हम भी तो युगों से प्यासे तडप रहे हैं
निस्वार्थ प्रेम को पाने की चाह में भटक रहे हैं
फिर क्यों तुमने सिर्फ़ अपनी चाहत ही जनायी
क्यों हमारी चाहत पर बन्दिशों की फ़ेहरिस्त लगायी
जो इसी को चाहत कहते हो
जो इसे ही प्रमाणित करते हो
जो इसी को सर्वोपरि प्रेम की परिणति कहते हो
तो सुन लो मोहन
इसी प्रेम की हमने भी तुमसे है आस लगायी
गर कर सकते हो इसी तरह प्रेम का प्रतिदान
तभी रखना तुम प्रेम के ऐसे उच्च पायदान
जो तुम खुद नहीं कर सकते
फिर कैसे हो हमसे उम्मीद करते
क्योंकि
हैं तो अंश तुम्हारे ही
जो तुम्हारी चाहत होगी
जो तुम्हारी भाव भंगिमा होगी
उसी का तो प्रतिबिम्ब बनेगा
और हम तुम्हारा ही तो प्रतिबिम्ब हैं
इसलिये कहती हूँ कृष्णा
उम्मीद वो ही करना जो तुम खुद निभा सको
वरना सुनो कन्हाई
ये इकतरफ़ा प्रेम की कहानी ना हमें रास आयी
बिना सूरत के भी भला कहीं अक्स बना करते हैं
इसलिये
सुनो कन्हाई
तुम्हारी प्रीत ना हमें रास आयी
रविवार, 10 मार्च 2013
तो प्रश्न उठता है फिर पैदा ही क्यों किया वो बीज ????????
जग नियंता
नियंत्रित किये है
सारी सृष्टि
मगर "मैं" अनियंत्रित है
अस्फुट है
बेचैन है
खानाबदोश ज़िन्दगी आखिर
कब तक जी सकता है
हाँ ........."मैं" वो ही
जिसका अंकुर
सृष्टि के गर्भ में ही उपजा था
और बह रहा है
तब से निरंतर
अपने साथ काम ,क्रोध और लोभ
की आंधियां लेकर
और देखता है जहाँ भी उपजाऊँ भूमि
बीज रोपित कर देता है
जो वटवृक्ष बन पीढियां तबाह कर देता है
युगों को अभिशापित कर देता है
और आने वाली पीढियां
उसे ढ़ोने को मजबूर हो जाती हैं
क्योंकि "मैं" रुपी
चाहे रावण हो या कंस या दुर्योधन
हमेशा युगों पर प्रश्नचिन्ह छोड़ गया
जिसकी सलीब आज भी
सदियों से ढ़ोती पीढियां
उठाने को मजबूर हैं
क्योंकि नहीं मिल रहा उन्हें
अपने प्रश्नों का सही उत्तर
नहीं हुई ऐसी खोज जो कारण
की जड़ तक जा सके
बस लकीर के फकीर बने
सवालों को गूंगा किये
हम एक अंधी दौड़ में चल रहे हैं
और कोई यदि सवाल करे
तो उसे ही पागल घोषित कर रहे हैं
ऐसे में "मैं" तो पोषित होना ही है
क्योंकि उसके पोषक तत्त्व तो यही हैं
क्या "मैं " को ज़मींदोज़ करने के लिए
हर बार प्रलय जरूरी है ?
ये "मैं" की परिपाटी बदलने के लिए
क्या उसकी टहनी के साथ
दूसरी शाखा नहीं जोड़ी जा सकती
जो "हम" के फूलों से पल्लवित हो
और सृष्टि कर्ता का सृजन सफल हो
या ये उसकी सरंचना का वो छेद है
जिसे वो स्वयं नहीं भरना चाहता
क्योंकि
मदारी के खेल में बन्दर को तो सिर्फ उसके इशारों पर नाचना होता है
जो ये नहीं सोच पाता
क्या असर पड़ेगा इसका द्रष्टा पर
फिर सुना है
सृजनकर्ता को नहीं पसंद
"मैं" का अंकुर
तो प्रश्न उठता है फिर पैदा ही क्यों किया वो बीज ??????????
बुधवार, 6 मार्च 2013
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
जैसा घट मेरा रीता वैसा ही तुम्हारा पाया
कभी कर प्रलाप कभी कर आत्मालाप
सुख दुख की सीमा पर ही आत्मसुख मैने पाया
तुम्हारी शरण आकर ही अविच्छिन्न सुख मैने पाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
हे जगदाधार , घट घटवासी ,अविनाशी
ये जीवन था निराधार , आधार मैने पाया
जो छोड सारे द्वंदों को तेरी शरण मैं आया
कर नमन तुझको , जीवन सार मैने पाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
अपूर्ण था अपूर्ण ही रहता जो ना तुमको ध्याता
तुमने अपना वरद हस्त रख सम्पूर्ण मुझे बनाया
जो कभी कहीं भरमाया तुमने ही रास्ता दिखलाया
अपनी शरण लेकर तुमने मुझे निर्भय बनाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
कभी कर प्रलाप कभी कर आत्मालाप
सुख दुख की सीमा पर ही आत्मसुख मैने पाया
तुम्हारी शरण आकर ही अविच्छिन्न सुख मैने पाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
हे जगदाधार , घट घटवासी ,अविनाशी
ये जीवन था निराधार , आधार मैने पाया
जो छोड सारे द्वंदों को तेरी शरण मैं आया
कर नमन तुझको , जीवन सार मैने पाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
अपूर्ण था अपूर्ण ही रहता जो ना तुमको ध्याता
तुमने अपना वरद हस्त रख सम्पूर्ण मुझे बनाया
जो कभी कहीं भरमाया तुमने ही रास्ता दिखलाया
अपनी शरण लेकर तुमने मुझे निर्भय बनाया
फिर कहो कैसे कहूँ मैं रीता ही वापस आया
रविवार, 3 मार्च 2013
खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं .....
कैसी हो गयी हूँ मैं ..........खुद से भी अनजान सी ........क्या चाहती हूँ नहीं जानती ..........ढूंढ रही हूँ खुद में खुद को ...........कोई पहचान चिन्ह ही नहीं मिल रहा ........ बड़ी बेतरतीबी बनी हुयी है ..........कभी किसी धुन पर थिरक उठना तो अगले ही पल किसी धुन पर रो पड़ना या गुमसुम हो जाना ............कभी विचलित तो कभी उद्वेलित तो कभी उद्गिन ...........अजब उहापोह की धमाचौकड़ी मची रहती है और उसमे खुद को ढूंढना जैसे अँधेरी कोठरी में सूईं को ढूंढना .............भागने की इच्छा होना और कोई दरवाज़ा न दिखना जो गली की ओर खुलता हो .......... दिख भी जाये तो कोई राह न दिखती जिसकी कोई मंजिल हो ..........ऐसे में ना बाहर की रही ना अन्दर की ...........अजब कशमकश का शोर ................कान बंद करने पर भी सुनाई देता है ............नहीं भाग पाती आंतरिक कोलाहल से ............और कभी सब यूँ शांत जैसे सृष्टि का अस्तित्व ही न हो ...........सिर्फ एक नाद हो ............परम नाद , ब्रह्म नाद ............कौन सी स्थिति का द्योतक है ? कैसी ये मनःस्थिति है ? कौन सी विडंबना है जो सर उठाना चाहकर भी नहीं उठा पा रही .........खुद को पूरा नहीं पा रही और असमंजस की स्थिति में गोते लगाता मुझमे कोई मुझे ढूंढ रहा है ............क्या मिलूंगी मैं कभी उससे ? खोज की अपूर्णता का तिलिस्म भेदने के लिए किस कालचक्र से गुजरना होगा जो प्रश्न के आगे लगे प्रश्नचिन्ह से निजात मिल सके .........खंडित काल की खंडित कृति हूँ मैं ..... मिलेगा कोई शिल्पकार क्या मुझे मेरा रंग रूप देने के लिए .........इंतज़ार की वेदी पर चिता सुलग रही है ..........आह्वान करती हूँ तुम्हारा ..............पूर्णाहूति के लिए ...........देव मेरे ! शिलाओं के उद्धार को अवतरित होना होगा !!!!!!!!