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शुक्रवार, 21 जून 2013

कैसे कहूं सखी मन मीरा होता तो श्याम को रिझा लेता




कैसे कहूं सखी 

मन मीरा होता तो 
श्याम को रिझा लेता 
उन्हे नयनो मे समा लेता 
ह्रदयराग सुना देता 
पर ये तो निर्द्वन्द भटकता है
ना कोई अंकुश समझता है
या तो दे दो दीदार सांवरे
नहीं तो दर बदर भटकता है
पर मीरा भाव ना समझता है
ना मीरा सा बनता है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

अब तो एक ही रटना लगाता है
किसी और भुलावे में ना आता है
अपने कर्मों की पत्री ना बांचता है
अपने कर्मों का ना हिसाब लगाता है
जन्म जन्म की भरी है गागर
पापों का बनी है सागर
उस पर ना ध्यान देता है
बस श्याम मिलन को तरसता है
दीदार की हसरत रखता है
ये कैसे भरम में जी रहा है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

जाने कहाँ से सुन लिया है
अवगुणी को भी वो तार देते हैं
पापी के पाप भी हर लेते हैं
और अपने समान कर लेते हैं
वहाँ ना कोई भेदभाव होता है
बस जिसने सर्वस्व समर्पण किया होता है
वो ही दीदार का हकदार होता है
बता तो सखी ,
अब कैसे ना  कहूं
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता

10 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर भक प्रबल प्रस्तुति ...

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  2. पीना पड़ता यहाँ गरल है।
    मीरा बनना नहीं सरल है।।

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  3. प्रेम और भक्ति का संगम करके रचित रचना के लिये आपको बधाई
    chitranshsoul

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  4. क्या बात है ...
    मन मीरा होजाए तो,
    जाने क्या ना होजाए |

    जवाब देंहटाएं

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