कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता
उन्हे नयनो मे समा लेता
ह्रदयराग सुना देता
ना कोई अंकुश समझता है
या तो दे दो दीदार सांवरे
नहीं तो दर बदर भटकता है
पर मीरा भाव ना समझता है
ना मीरा सा बनता है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता
अब तो एक ही रटना लगाता है
किसी और भुलावे में ना आता है
अपने कर्मों की पत्री ना बांचता है
अपने कर्मों का ना हिसाब लगाता है
जन्म जन्म की भरी है गागर
पापों का बनी है सागर
उस पर ना ध्यान देता है
बस श्याम मिलन को तरसता है
दीदार की हसरत रखता है
ये कैसे भरम में जी रहा है
फिर कैसे कहूं सखी
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता
जाने कहाँ से सुन लिया है
अवगुणी को भी वो तार देते हैं
पापी के पाप भी हर लेते हैं
और अपने समान कर लेते हैं
वहाँ ना कोई भेदभाव होता है
बस जिसने सर्वस्व समर्पण किया होता है
वो ही दीदार का हकदार होता है
बता तो सखी ,
अब कैसे ना कहूं
मन मीरा होता तो
श्याम को रिझा लेता
बहुत ही सुन्दर और कोमल भाव..
जवाब देंहटाएंभक्ति भाव से ओत प्रोत!!
जवाब देंहटाएंadhbhut.....
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भक्ति भाव... बधाई.
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति !
latest post परिणय की ४0 वीं वर्षगाँठ !
सुंदर भक प्रबल प्रस्तुति ...
जवाब देंहटाएंपीना पड़ता यहाँ गरल है।
जवाब देंहटाएंमीरा बनना नहीं सरल है।।
प्रेम और भक्ति का संगम करके रचित रचना के लिये आपको बधाई
जवाब देंहटाएंchitranshsoul
क्या बात है ...
जवाब देंहटाएंमन मीरा होजाए तो,
जाने क्या ना होजाए |