पेज

गुरुवार, 5 अक्टूबर 2017

लागी छूटे न



मेरी सीमितताएँ
सीमित संसाधन
सीमित सोच
उठने नहीं देते तल से मुझे
फिर कैसे एक नया आसमां उगाऊँ

होंगे औरों के लिए तुम
चितचोर भँवरे
माखनचोर नंदकिशोर
लड्डूगोपाल
और न जाने क्या क्या
मगर
इक नशा सा तारी हो गया है
जब से तुम्हारा संग किया
मेरे लिए तो मेरी 'वासना' भी तुम हो
और 'व्यसन' भी तुम ..... मोहन 


लागी छूटे ना ..........

शनिवार, 30 सितंबर 2017

अपने पक्ष में

राम
जाने क्यों हम तुम्हें मानव ही न मान पाए
महामानव भी नहीं
ईश्वरत्व से कम पर कोई समझौता कर ही न पाए
शायद आसान है हमारे लिए यही
सबसे उत्तम और सुलभ साधन

वर्ना यदि स्वीकारा जाता
तुम्हारा मानव रूप
तो कैसे संभव था
अपने स्वार्थ की रोटी का सेंका जाना ?

आसान है हमारे लिए ईश्वर बनाना
क्योंकि
ईश्वर होते हैं या नहीं, कौन जान पाया
हाँ, ईश्वर बनाए जरूर जाते हैं
क्योंकि तब आसान होता है
न केवल पूजना बल्कि पुजवाना भी
हथियार उठाना भी
बबाल मचाना भी
धर्म की वेदी पर नरसंहार शगल जो ठहरा मानव मन का

आस्था अनास्था प्रतीकात्मक धरोहर सी
ढोयी जाने को विवश हैं
धर्म की ठेकेदारी के लिए जरूरी था तुम्हारा ईश्वरीय रूप
वर्ना देखने वाले देख भी सकते थे
और समझ भी सकते थे
मानव सुलभ कमजोरियों से घिरे कितना असहाय थे तुम भी

यहाँ बलि देकर ही पूजे जाने का रिवाज़ है
फिर वो पशु की हो या इंसान की
वाल्मीकि के राम से तुलसी के राम तक का सफर
अपनी विभीषिका के साथ चरम पर है
यहाँ ईश्वर स्वीकारा जाना आसान है बनिस्पत मानव स्वीकारे जाने के

अब मारना ही होगा हर साल तुम्हें सबका मनचाहा रावण
कि युग परिवर्तन का दौर है ये
तुम्हारे होने न होने
तुम्हारे माने जाने न माने जाने से परे
हम जानते हैं भुनाना अपने पक्ष में हर चीज को
फिर वो ईश्वर हो या मानव


सोमवार, 21 अगस्त 2017

प्रीत की भाँवरें

मुझ सी हठी न मिली होगी कोई
तभी तो
तुमने भी चुनी उलट राह ... मिलन की
दुखी दोनों ही
अपनी अपनी जगह

दिल न समंदर रहा न दरिया
सूख गए ह्रदय के भाव
पीर की ओढ़ चुनरिया
अब ढूँढूं प्रीत गगरिया
और तुम लेते रहे चटखारे
खेलते रहे , देखते रहे छटपटाहट
फिर चाहे खुद भी छटपटाते रहे
मगर भाव पुष्ट करते रहे

कभी कभी सीधी राहें रास नहीं आतीं
और तुम
'उल्टा नाम जपत जग जाना
वाल्मीकि भये ब्रह्म समाना'
के समान राह आलोकित करते रहे
उसमे भी तुम्हारा प्रेम छुपा था
आर्त स्वर कौन सुनता है सिवाय तुम्हारे
आर्त कौन होता है सिवाय तुम्हारे
एक ही कश्ती में सवार हैं दोनों
आओ खोजें दोनों ही मिलन की कोई स्थली

शायद
मौन का घूँट पीयूँ
और सुहाग अटल हो जाए
ये प्रीत की भाँवरें इस बार उल्टी ली हैं हमने...है न साँवरे

सोमवार, 14 अगस्त 2017

घरों में मातम और जन्मोत्सव?

पूछना तो नहीं चाहिए
लेकिन पूछ रही हूँ
क्या जरूरी है हर युग में
तुम्हारे जन्म से पहले
नन्हों का संहार ...कंसों द्वारा
कहो तो ओ कृष्ण
जबकि मनाते हैं हम तुम्हारा जन्म प्रतीक स्वरुप

सोचती हूँ
यदि सच में तुम्हारा जन्म हो फिर से
तो जाने कितना बड़ा संहार हो
सिहर उठती है आत्मा
क्या तुम नहीं सिहरते
क्या तुम्हारा दिल नहीं दुखता
क्या जरूरी है हर बार ये आक्षेप अपने सिर पर लेना

कभी तो विचार लो इस पर भी
कि
सृष्टि में तुम्हारे आगमन पर संहार के बीज जो बोये हैं
वो कैसे खिलखिला रहे हैं
मगर जाने कितने घरों में मातम पसरा है
क्या जरूरी है चली आ रही परंपरा का ही वाहक बनना?

जन्मोत्सव कैसे स्वीकार सकते हो तुम बच्चों की चिता पर
अबूझ रहस्य है
गर संभव हो तो सुलझा देना जरा
सुना है
तुम करुणा के सागर हो
द्रवित हो उठते हो किसी की जरा सी पीड़ा पर
तो इस बार क्या हुआ?

इस बार करो कुछ ऐसा
कि
सार्थक हो जाए तुम्हारा जन्मोत्सव
तुम्हारी भृकुटी के विलास से भला क्या संभव नहीं ?
 
डिसक्लेमर :
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है.इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta  
 

रविवार, 6 अगस्त 2017

मित्रता किसने किससे निभाई

 
मित्रता किसने किससे निभाई
ये बात कहाँ दुनिया जान पाई
निर्धन होते हुए भी
वो तो प्रेम का नाता निभाता रहा
अपनी गरीबी को ही बादशाहत मानता रहा
उधर
सम्पन्न होते हुए भी
अपने अहम के बोझ तले
तुमने ही आने/अपनाने में देर लगाई
 
तुम्हारे लिए क्या दूर था और क्या पास
मगर ये सच है
नहीं आई थी तुम्हें कभी उसकी याद
वर्ना न करते इतने वर्षों तक इंतज़ार 
 
इकतरफा मित्रता थी ये
जिसका मोल तो सिर्फ वो ही जानता था
तभी न कभी उसने गुहार लगाई
तुम्हारी ख़ुशी में ही अपनी ख़ुशी जताई
फिर कैसे कहूँ
जानते हो तुम मित्रता की सच्ची परिभाषा ......कान्हा 
 
डिसक्लेमर :
ये पोस्ट पूर्णतया कॉपीराइट प्रोटेक्टेड है, ये किसी भी अन्य लेख या बौद्धिक संम्पति की नकल नहीं है।
इस पोस्ट या इसका कोई भी भाग बिना लेखक की लिखित अनुमति के शेयर, नकल, चित्र रूप या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रयोग करने का अधिकार किसी को नहीं है, अगर ऐसा किया जाता है निर्धारित क़ानूनों के तहत कार्रवाई की जाएगी।
©वन्दना गुप्ता vandana gupta  
 

बुधवार, 2 अगस्त 2017

अब तुम्हारी बारी है ...

तुम थे
तो जहान में सबसे धनवान थी मैं
अब तुम नहीं
तुम्हारी याद नहीं
तुम्हारा ख्याल तक नहीं
तो मुझ सा कंगाल भी कोई नहीं

वो मोहब्बत की इन्तेहा थी
ये तेरे वजूद को नकारने की इन्तेहा है
जानते हो न
इसका कारण भी तुम ही हो
फिर निवारण की गली मैं अकेली कैसे जाऊँ?

मुझे जो निभाना था , निभा चुकी
सच और झूठ के पलड़ों में
तुम्हारे होने और न होने के पलड़ों में
अब तुम्हारी बारी है ... यदि हो तो ?

आस्था विश्वास और अविश्वास के मध्य
महीन सी लकीर
तुम्हारा कथ्य तोल रही है

जानते हो न
बदले बेशक जाएँ
टूटे तार फिर जुड़ा नहीं करते ...


बुधवार, 19 जुलाई 2017

पहन लूँ मुंदरी तेरे नाम की


उलझनों में उलझी इक डोर हूँ मैं या तुम
नही जानती
मगर जिस राह पर चली
वहीं गयी छली
अब किस ओर करूँ प्रयाण
जो मुझे मिले मेरा प्रमाण

अखरता है अक्सर अक्स
सिमटा सा , बेढब सा
बायस नहीं अब कोई
जो पहन लूँ मुंदरी तेरे नाम की
और हो जाऊँ प्रेम दीवानी 

कि
फायदे का सौदा करना
तुम्हारी फितरत ठहरी
और तुम्हें चाहने वाले रहे
अक्सर घाटे में

यहाँ कसौटी है
तुम्हारे होने और न होने की
तुम्हारे मिलने और न मिलने की
रु-ब-रु
कि तत्काल हो जाए पूर्णाहूति

प्रश्न हैं तो उत्तर भी जरूर होंगे
कहीं न कहीं
तुम महज ख्याल हो या हकीकत
कि
इसी कशमकश में अक्सर
गुनगुनाती हूँ मैं

तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन ज़िन्दगी तो नहीं...माधव 

#हिन्दी_ब्लॉगिंग

शनिवार, 8 जुलाई 2017

मैं, कैसे आत्ममंथन कर पाऊँ

मैं निर्जन पथगामी
अवलंब तुम्हारा चाहूँ
साँझ का दीपक
स्नेह की बाती
तुमसे ही जलवाऊँ
मैं, तुमसी प्रीत कहाँ से पाऊँ

मन मंदिर की
देह पे अंकित
अमिट प्रेम की लिपि
फिर भी खाली हाथ पछताऊँ
मैं, रीती गागर कहलाऊँ

जो पाया सब कुछ खोकर
खुद से ही निर्द्वंद होकर
तर्कों के महल दोमहलों में
पग पग भटकती जाऊं
मैं, जीवन बेकार गवाऊं
 

स्नेहसिक्त से स्नेहरिक्त तक 
तय हुआ सफ़र 
कोरा कागज कोरा शून्य बन 
किस जोगी से आकलन करवाऊं 
मैं, कैसे आत्ममंथन कर पाऊँ 

आत्मबोध जीवन दर्शन के 
कुचक्र में फंसकर 
वो कौन सा राग है 
जिसका मल्हार बन जाऊँ
जो मन की तपोभूमि पर
मैं, तपस्या कर रहा जोगी चहकाऊँ



सोमवार, 19 जून 2017

प्रश्नचिन्ह

मैं भाग रही हूँ तुमसे दूर
अब तुम मुझे पकड़ो
रोक सको तो रोक लो
क्योंकि
छोड़कर जाने पर सिर्फ तुम्हारा ही तो कॉपीराइट नहीं

गर पकड़ सकोगे
फिर संभाल सकोगे
और खुद को चेता सकोगे
कि
हर आईने में दरार डालना ठीक नहीं होता
शायद तभी
तुम अपने अस्तित्व से वाकिफ करा पाओ
और स्वयं को स्थापित
क्योंकि
मन मंदिर को मैंने अब धोकर पोंछकर सुखा दिया है

एक ही देवता था
एक ही तस्वीर
जिसे तुमने किया चूर चूर
अब
नए सिरे से मनकों पर फिर रही हैं ऊँगलियाँ
जिसमे तुम्हारे ही अस्तित्व पर है प्रश्नचिन्ह
तो क्या इस बार कर सकोगे प्रमाणित खुद को
और रोक सकोगे अपने एक प्रेमी को बर्बाद होने से

संकट के बादल छाये हैं तुम पर इस बार
और
शुष्क रेत के टीलों से आच्छादित है मेरे मन का आँगन
जिसमे नकार की ध्वनि हो रही है गुंजायमान
कहो इस बार कैसे करोगे नकार को स्वीकार में प्रतिध्वनित ?

अस्तित्व की स्वीकार्यता ही मानक है ज़िन्दगी की
फिर वो स्त्री हो या ईश्वर

मंगलवार, 23 मई 2017

संवाद के आखिरी पल

संवाद के आखिरी पलों में
नहीं झरते पत्ते टहनियों से
नहीं करती घडी टिक टिक
नहीं उगते क्यारियों में फूल

रुक जाता है वक्त
सहमकर
कसमसाकर
कि
नाज़ुक मोड़ों पर ही अक्सर
ठहर जाती है कश्ती

कोई गिरह खुले न खुले
कोई जिरह आकार ले न ले
बेमानी है
कि
हंस ने तो उड़ना ही अकेला है

ये तमाशे का वक्त नहीं
ये माफीनामे की कवायद नहीं
ये धीमे से गुजरने की प्रक्रिया है
जहाँ
साँस रोके खडी होती है हवा भी
कि
हिलने से न हो जाए कहीं तपस्या भंग

संवाद के आखिरी पल
किसी कृष्ण का मानो प्रलय में पत्ते पर अंगूठा चूसते हुए मुस्कुराना भर ही तो है

गुरुवार, 16 फ़रवरी 2017

खजुराहो की तलाश में

जाने किस खजुराहो की तलाश में
भटकती है मन की मीन
कि एक घूँट की प्यास से लडती है प्रतिदिन

आओ कि घूँघट उठा दो
जलवा दिखा दो
अभिसार को फागुन भी है और वसंत भी

द्वैत से अद्वैत के सफ़र में
प्रीत की रागिनी हो तो
ओ नीलकमल !
मन मीरा और तन राधा हो जाता है

अलौकिकता मिलन में भी और जुदाई में भी
कहो कि कौन से घट से भरोगे घूँट ....साँवरे पिया !!!

सोमवार, 13 फ़रवरी 2017

मैं बंजारन

 
 
मैं बंजारन
आधी रात पुकारूँ
पी कहाँ पी कहाँ

वो छुपे नयनन की कोरन पे
वो लुके पलकों की चिलमन में
वो रुके अधरों की थिरकन पे

अब साँझ सवेरे भूल गयी हूँ
इक पथिक सी भटक गयी हूँ
कोई मीरा कोई राधा पुकारे
पर मैं तो बावरी हो गयी हूँ

प्रेम की पायल
प्रीत के घुँघरू
मुझ बंजारन के बने सहाई
अब तो आ जाओ मोरे कन्हाई
कि
इश्क मुकम्मल हो जाए
बंजारन को उसका पी मिल जाए 
 
जानते हो न
ये आधी रात की आधी प्यास है .........गोविन्द