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बुधवार, 3 दिसंबर 2014

वो 22 दिन

बस यही है मेरी श्रद्धांजलि :

आज बाऊजी को संसार से विदा हुए 10 साल हो गए और वेदना का आकाश दर्द से इतना बेजार हुआ इस साल कि परत-दर-परत खोलने को बेचैन हो गया ……बाऊजी के जीवन के अंतिम क्षणों को ये सोचकर कलमबद्ध करने की कोशिश की ……शायद कुछ निजात पा सकूँ इस बेचैनी से  :  


वो 22 दिन
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किसे ज्यादा प्यार करती है मम्मी को या बाऊजी को ?

मम्मी को

एक अबोध बालक का वार्तालाप जिसे प्यार के वास्तविक अर्थ ही नहीं मालूम । जो सिर्फ़ माँ के साथ सोने उठने बैठने रहने को प्यार समझती है । उसे नहीं पता पिता के प्यार की गहराई , वो नहीं जानती कि ऊपर से जो इतने सख्त हैं अन्दर से कितने नर्म हैं , उसे दिखाई देता है पिता द्वारा किया गया रोष और माँ द्वारा किया गया लाड और जीने लगती हैं बेटियाँ इसी को सत्य समझ बिना जाने तस्वीर का कोई दूसरा भी रुख होता है । उन्हें दिखायी देता है तो सिर्फ़ पिता का अनुशासन बद्ध रखना और रहना , अकेले आने जाने पर प्रतिबंध मगर नहीं जान पातीं उनका लाड से खिलाये गये निवाले में उनका निश्छल प्रेम , उनकी बीमारी में , तकलीफ़ में खुद के अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रण । उम्र ही ऐसी होती है वो जो सिर्फ़ उडान भरना चाहती है वो भी बिना किसी बेडी के तो कैसे जान सकती हैं प्रतिबंधों के पीछे छुपी ममता के सागर को । और ऐसा ही मैं सोचा करती थी और किसी के भी पूछने पर कह उठती थी , “ मम्मी से प्यार ज्यादा करती हूँ । “

प्यार के वास्तविक अर्थों तक पहुँचने के लिए गुजरना पडा अतीत की संकरी गलियों से तब जाना क्या होता है पिता का प्रेम जो कभी व्यक्त नहीं करते मगर वो अवगुंठित हो जाता है हमारी शिराओं में इस तरह कि अहसास होने तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर जब अहसास होता है तब उसकी कद्र होती है । नेह के नीडों की पहचान के लिए गुजरना जरूरी है उन अह्सासों से :

खुली स्थिर आँखें , एक - एक साँस इस तरह खिंचती मानो कोई कुयें से बहुत जोर देकर बडी मुश्किल से पानी की भरी बाल्टी खींच रहा हो और चेतना ने संसार का मोह छोड दिया हो और गायब हो गयी हो किसी विलुप्त पक्षी की तरह। वो 22 दिन मानो वक्त के सफ़हों से कभी मिटे ही नहीं , ठहर गये ज्यों के त्यों । कितनी ही आँख पर पट्टी बाँध लूँ मगर स्मृति की आँख पर नहीं पडा कभी पर्दा । हाँ , स्मृति वो तहखाना है जिसके भीतर यदि सीलन है तो रेंगते कीडे भी जो कुरेदते रहते हैं दिल की जमीन को क्योंकि आदत से मजबूर हैं तो कैसे संभव है आँखों के माध्यम से दिल के नक्शे पर लिखी इबारतों का मिटना ? एक अलिखित खत की तरह पैगाम मिलते रहते हैं और सिलसिला चलता रहता है जो एक दिन मजबूर कर देता है कहने को , बोलने को उस यथार्थ को जिसे तुमने अपने अन्तस की कोठरियों में बंद कर रखा होता है और सदियों को भी हवा नहीं लगने देना चाहते मगर तुम्हारे चाहे कब कुछ हुआ है । सब प्रकृति का चक्र है तो चलना जरूरी है तो कैसे मैं उससे खुद को दूर रख सकती हूँ , स्मृतियों ने अपने पट खोल दिए हैं और कह रही हैं ,
‘ आओ , देखो एक बार झाँककर , खोलो बंधनों को जिनमें बाँध रखा है खुद को , निकालना ही होगा तुम्हें तुम्हारा अवसाद , पीडा और दंश ‘ ।

बात सिर्फ़ 22 दिनों की नहीं है बात है एक जीवन की , एक सोच की , एक ख्याल की । कोमा एक अवस्था जिसमें जाने वाला छोड देता है सारे रिश्ते नाते जीते जी , तोड लेता है हर संबंध भौतिक जगत से विज्ञान के अनुसार और आप जा चुके थे उस अवस्था में । जाने कितनी पीडा अपने साथ ले गए । जाने किस अज्ञात सफ़र में थे जो किसी से नहीं रहा कोई नाता जैसे, यूँ तोड दिया पल में हर रिश्ता जबकि रिश्तों को सबसे ज्यादा आपने ही जीया । कितने फ़िक्रमंद हुआ करते थे घर के एक – एक प्राणी के लिए । प्राण बसा करते थे आपके हर रिश्ते में फिर माता पिता का हो या भाई बहन का या पत्नी और बच्चों का । भाई – बहनों से चाहे कितनी अनबन हो जाती मगर आपने कभी उनके लिए अपने मन में कटुता नहीं लायी बल्कि उनके हर दुख सुख में उनके साथ खडे रहते । दादी की बीमारी में अपनी सरकारी नौकरी तक की परवाह न कर चार महीने तक छुट्टी लेकर बैठे रहे ताकि आपकी माँ को जब आपकी जरूरत हो आप उपलब्ध हो सकें और उनका सही इलाज करवा सकें । बेटियाँ में तो मानो आपके प्राण ही बसा करते थे । बेशक आपका कठोर स्वभाव सबको रास नहीं आता था मगर नारियल के ऊपरी आवरण से परे उतने ही अन्दर से कोमल थे ये शायद ही कोई समझ पाया हो ।
उम्र का एक दौर हुआ करता है जिसमें हर लडकी अपनी इच्छाओं के पंखों पर सवार उडा करती है और माता पिता द्वारा की गयी बंदिशें उसे नागवार गुजरती हैं ऐसे में यदि पिता का रौबीला वर्चस्व आपके जेहन पर डर बनकर हावी रहे तो आप कैसे सहज रह सकते हैं कुछ ऐसा ही मैं महसूसा करती थी जब भी कहीं बाहर अकेले आना जाना होता या स्कूल से कहीं लेकर जाते तो आप नहीं भेजा करते जो मुझे अन्दर ही अन्दर आप से एक दूरी बनाने को मजबूर करता या एक डर आपका मेरे वजूद पर हावी रहता और मैं यदि कहीं जाती भी तो वक्त पर घर पहुंचने की कोशिश करती ये सोच आप परेशान हो जायेंगे क्योंकि वो मेरी सोच थी उस वक्त की मगर आज समझ सकती हूँ आपकी वो वेदना जो अपने बच्चे को जब बाहर हम भेजते हैं तो उनके ठीक ठाक घर पहुँचने के लिए कितने फ़िक्रमंद रहा करते हैं जबकि आज तो हर हाथ में मोबाइल है और उस वक्त तो किसी किसी के घर ही टेलीफ़ोन होते थे ऐसे में संदेश मिलने कितने मुश्किल होते हैं और बच्चे की चिन्ता में माता पिता क्या महसूसते होंगे आज समझ सकती हूँ लेकिन तब नहीं समझ सकती थी उस वक्त तक आप मेरे लिए सिर्फ़ एक डर का बायस थे , चिन्तातुर पिता से ज्यादा तो दूसरी तरफ़ मेरे लिए मुझे हमेशा आगे बढने को प्रेरित करते , किसी से भी न डरने की शिक्षा देते । आज भी याद है मुझे जब मैं सातवीं कक्षा में थी और आप ने एक इंग्लिश के प्रश्न का उत्तर मुझे लिखवाया और मैने वो ही उत्तर अपनी परीक्षा में लिखा जिसे मेरी टीचर ने काट दिया और उस पर रिमार्क लिखा जब मैने आपको बताया तो आपने एक पत्र मेरी प्रिंसिपल के लिए लिखा और मुझे कहा , जाकर अपनी प्रिंसिपल को दे आना । बाऊजी , मैं प्रिंसिपल के कमरे में कैसे जाऊँगी जब कहा तो बोले अरे डरने की क्या बात है , बेधडक जाओ और पत्र देकर आना कहना मेरे पिताजी ने भेजा है देखना कुछ नहीं कहेंगी और मैं डरते डरते प्रिंसिपल के पास वो पत्र दे आयी तो उस दिन मुझमें एक हौसले का संचार हुआ कि दुनिया में किसी से बिना बात डरना नहीं चाहिए , कदम आगे बढाना चाहिए ज्यादा से ज्यादा सामने वाला न ही तो कहेगा लेकिन आपकी बात भी उस तक पहुँच जाएगी फिर चाहे उस गलती के लिए मेरी टीचर ने मुझे अपने पास बुलाया और कहा कि बेटा तुम प्रिंसिपल के पास क्यों गयीं मुझे कह दिया होता , तुम्हारे पिताजी ने सही कहा यहाँ मेरी ही गलती थी , जब ये बात सुनी तो मेरा आत्मविश्वास बढा और शायद यहीं से मुझमें आपने एक हिम्मत की नींव डाल दी थी जो ज़िन्दगी भर मेरे काम आयी । यहाँ तक कि मैं आज बडे से बडे अफ़सर हो या मंत्री या नेता किसी से भी मिलने या बात करने में संकोच नहीं करती या कहीं जाना हो बेधडक चली जाती हूँ ।


मुझे आज भी याद है ये उसी हिम्मत का परिणाम था जब एक बार मम्मी अस्पताल में थीं और आपको वहाँ उनके साथ रहना था और मुझे घर वापस भेजना था जाने किस परेशानी से गुजरे होंगे ये आज अनुमान लगा सकती हूँ शायद उस वक्त तो समझ भी नहीं सकती थी क्योंकि आप का स्वभाव था ही ऐसा । सिर्फ़ पाँच मिनट देर हो जाती घर आने में तो आप मेरे कॉलेज पहुँच जाया करते थे या कोई सामान गली में लेने गयी हूँ और देर होने लगती तो ढूँढने निकल पडते कि आखिर इतनी देर कैसे हो गयी , इतने चिन्तातुर थे आप बाऊजी और उस दिन सरदारों का कोई जुलूस निकल रहा था तो सारे रास्ते बंद थे । आप और मैं दोनो विलिंगडन अस्पताल के बस स्टाप पर खडे रहे कि कोई बस मिल जाए जो उस तरफ़ जाए । 215 नम्बर का इंतज़ार करते करते जब काफ़ी देर हो गयी और लोगों ने बताया आज इधर वाहन आने बंद हैं न प्राइवेट बस मिलेगी न सरकारी और आपको मम्मी के पास भी जाना था , उन्हें ज्यादा देर अकेला छोड नहीं सकते थे और मुझे भी सुरक्षित बैठाना था वाहन में तो आपने एक थ्री व्हीलर वाले को रोका और मुझे कहा , बेटा इसमें जाओ और देखो पंचकुइयाँ से पहाडगंज का रास्ता ले लेंगे वहाँ से तुम सुरक्षित पहुँच जाओगी और घर पहुँचते ही मुझे अस्पताल के नम्बर पर फोन करना ।

सरदार जी , बच्ची को सही तरह पहुँचा देना ।

बिल्कुल बाऊजी , आप चिन्ता न करें ।मैं भी बाल बच्चों वाला इंसान हूँ । वो बोला ।

मैने भी ‘ठीक है बाऊजी ‘ कह तो दिया था मगर उससे पहले कभी इस तरह अकेले ऑटो में बाहर नहीं निकली थी । यदि निकली भी तो सिर्फ़ इतना कि घर से कॉलेज और कॉलेज से घर वो भी बंधी बंधाई बस में तो बाहर की दुनिया की कोई जानकारी ही नहीं थी । वैसे भी कोई कैसे विश्वास करेगा कि दिल्ली जैसे शहर में रहने वाली लडकियाँ भी ऐसी हुआ करती हैं मगर घर का माहौल ही कुछ ऐसा रहा कि कहीं भी बाहर आते - जाते तो घर के लोगों के साथ ही या फिर बाऊजी और मम्मी के साथ ही । ऐसे में हौसला करके ऑटो में बैठ तो गयी मगर जब उसकी शक्ल देखी तो घिग्गी बंध गयी । लाल - लाल आँख , चेचक के दाग से भरा सांवला चेहरा , बडी - बडी मूँछें , ऊपर से एक आँख से काना और बेहद सेहतमंद और फिर सरदार ।सरदार से डर इसलिए क्योंकि एक साल पहले ही इंदिरा गाँधी की हत्या सरदार द्वारा हुई थी तो उनके लिए मन में एक डर सा बैठ गया था । अन्दर ही अन्दर एक लडाई खुद से लडती रही । क्या हुआ जो अकेले जा रही हूँ । मैं कोई कमजोर थोडे हूँ । इसे बिल्कुल इल्म नहीं होने दूँगी कि मुझे रास्ते नहीं पता । नहीं तो क्या पता कहाँ ले जाए । इसलिये जैसे ही पहाडगंज पर आया तो उसे दिशा निर्देश देने लगी क्योंकि पहाड गंज से रास्ता पता था मगर उससे पहले का नहीं पता था क्योंकि उस रूट पर ही मेरा कॉलेज था ताकि उसे लगे कि इसे सब पता है । पता नहीं सामने वाले में कोई दोष होता भी है या नहीं मगर हमारे अन्दर बैठा डर का साँप हमें हर पल डँसता ही रहता है । मुझे सही सलामत पहुँचा दिया था उसने और अभी मैं घर भी नहीं पहुँची थी कि आपका फोन आ गया कि मैं पहुँची भी या नहीं । कितने चिन्तातुर थे आप , शायद सोच भी नहीं सकती थी उस वक्त । बेशक आज आपकी हर चिन्ता को समझ सकती हूँ ।
बेटी हो या बेटा आप हमेशा इसी तरह चिन्तित हो जाते और हमेशा समय पर आने के निर्देश देते और यहाँ तक कि शादी हो जाने के बाद भी हमेशा वाहन तक छोडने आते फिर चाहे आपसे दर्द के कारण चला जाता या नहीं, तो ये क्या था सिवाय स्नेह के ।आपके ये उसूल तो आपके जँवाइयों को भी पता थे इसलिए घर पहुँचते ही सबसे पहले आपको फोन करवाया करते कि बाऊजी चिन्ता कर रहे होंगे । ये सब आपका स्नेह ही तो था , वो निस्वार्थ प्यार था जिसे शायद जब तक इंसान खुद माता पिता नहीं बनता और उस दौर से नहीं गुजरता समझ ही नहीं सकता । वरना पहले आपका इस तरह चिन्तित होना यूँ लगता था मानो आपको हम पर विश्वास ही नहीं है मगर वो आपका हम पर अविश्वास नहीं आपका हमारे लिए निश्छल प्रेम था जिसे आज कितनी शिद्दत से सब महसूसते हैं ।

आज भी याद है वो शाम जब मम्मी का फोन आया ।
बेटा , जल्दी आ जाओ , तुम्हारे बाऊजी का लग रहा है अंत समय आ गया है, खाना पीना सब छुट गया है और निढाल हो गये हैं एक दम चुप , सबको अजनबियों की तरह देख रहे हैं ,बीपी हाई हो गया है और दिल में भी तकलीफ़ है , पैरों तले जमीन ही खिसक गयी थी और हम सभी बहनें दौडी दौडी अपने अपने बच्चों सहित पहुँच गयी थीं । बाऊजी से सबको आशीर्वाद दिलवाया एक - एक का परिचय देते हुए क्योंकि पहचान ही नहीं पा रहे थे किसी को ।

रात मानो इम्तिहान के शिखर पर थी । एक - एक पल घंटों में तब्दील हो चुका था । मैं आपके सिरहाने बैठी कोई ग्रन्थ पढ रही थी जब आपसे मेरी बात हुई शायद चेतना में आ गए थे आप उस वक्त या शायद तबियत कुछ सुधर गयी थी बाकि सब ऊंघ रहे थे उस समय । आपका जीवन से और ईश्वर से जाने कैसा संवाद चल रहा था , एक अतृप्ति की छाया ने आपको उस पल बेचैन कर दिया था जब आपने कहा ,

कुछ नहीं होता पूजा पाठ आदी से , आखिर क्या पाया मैने जीवन से ? सारी ज़िन्दगी यूँ ही घिसटते हुए बीती , क्या सुख पाया ? ज़िन्दगी भर दुख दर्द तकलीफ़ों को सहते ही तो बीती ? बताओ क्या मिला ज़िन्दगी से , सच्चाई और ईमानदारी से ? सब बेकार लगता है अब ।

स्तब्ध रह गयी मैं क्योंकि सारी ज़िन्दगी ईश्वर की अनथक अराधना करने वाले के मुख से ये बात निकले तो हैरान होना लाज़िमी था जिन्होने हम सबमें ईश्वर में आस्था का बीज बोया था जिन्होने दो वक्त मंदिर नियम से जाना नहीं छोडा फिर कितनी ही आँधी तूफ़ान आये मगर नियम नही टूटना चाहिए आज वो ईश्वर के होने पर प्रश्नचिन्ह खडा कर रहा था , अपने उसूलों , अपनी आस्था पर से विश्वास उठ रहा था ये क्या हुआ सोच मैने कहा ,

बाऊजी , ये कैसे कह रहे हो आप । बताइये आपको क्या कमी रही जीवन में , देखिए , थोडा बहुत संघर्ष तो सभी के जीवन में होता ही है और आपकी सारी बेटियाँ अपने अपने परिवार में सुखी हैं । उनका एक भरा पूरा परिवार है । और बेटियों से बढकर आपका आदर करने वाले और आपकी बेटियों को चाहने वाले उन्हें पति मिले हैं तो दूसरी तरफ़ कभी किसी के आगे आपका सिर नहीं झुका , हमेशा गर्व से सिर उठाकर जीवन जीया , किसी से कभी कोई उधार नहीं लिया , समाज मे आपकी मान प्रतिष्ठा है , ये सब किसकी देन है , आपकी सच्चाई , ईमानदारी और निष्ठा की ही न ।यहाँ तक कि सरकारी नौकरी होने के बावजूद तीन - तीन बेटियों का विवाह करना क्या आसान था ? फिर कैसे आप ज़िन्दगी या ईश्वर पर आक्षेप लगा रहे हैं । बल्कि हमेशा आपने हमें यही सब कहकर समझाया कि अच्छा करोगे तो जीवन में हमेशा तुम्हारे साथ अच्छा ही होगा तुम अपना सच्चाई का रास्ता कभी मत छोडना और ईश्वर में हमेशा विश्वास रखना कि वो जो करता है अच्छा ही करता है और हमने भी यही देखा कि आप पर चाहे कितनी मुसीबतें आयीं मगर आप हर बार उनमें से कुन्दन की तरह खरे निकलते रहे और चमकते रहे । बताइये क्या कमी रही जो आज आप इस तरह की बात कर रहे हैं । आपकी फ़ुलवारी के हर फ़ूल पर देखो कैसी बहार छायी है फिर ऐसी निराशाजनक बात क्यों कर रहे हैं , अपने विश्वास और अपनी आस्था को कमजोर न होने दो और आप का हर मुसीबत मे मुस्कुराता चेहरा ही तो हमारा संबल रहा है और फिर यदि आप ऐसी बात करेंगे तो हमारा सबका क्या होगा । और मुझे तो ऐसा नहीं लगता कि आपके जीवन में कोई कमी रही। हाँ, संघर्ष बेशक रहा मगर हर संघर्ष के बाद जीवन और निखरा ही ।

और आप चुप हो गये मेरी बातें सुनकर और मैं आपके सिरहाने बैठी रही । रात अपनी गति से सरकती रही और आपको भी उसके बाद नींद आ गयी मगर मैं सोच में पड गयी आखिर ऐसा क्यूं हुआ आपके साथ ? आपका विश्वास क्यों डोला ? क्या अन्तिम समय ऐसा ही होता है सोच सिहर उठी । मगर तकदीर पर छायी छाया से मुक्त कर दिया सुबह की पहली किरण ने । सुबह डॉक्टर को दिखा दिया तो उसने कहा बस कल की रात भारी थी अब चिन्ता मत करो मगर उसके बाद आपने खाना नहीं खाया सिर्फ़ लिक्विड पर ही रहने लगे । अन्न छुट ही गया मगर हमारे लिए राहत थी कि अब आप खतरे से बाहर हैं ।

जीवन फिर ढर्रे पर चलने लगा था । जब एक दिन फिर तकरीबन दो सवा दो महीने बाद आपकी हालत फिर बिगडी तो आपको नर्सिंग होम में दाखिल करवाना पडा , बैड पर ही सारे नित्यकर्म करवाने पडते , आपका शरीर आपका साथ छोड रहा था , न खडे हो पाते थे न बैठ पाते यहाँ तक कि अपने दस्तखत भी नहीं कर पा रहे थे तो आपके अंगूठे के निशान को मान्यता दी बैंक ने मगर अब तो कुछ भी संभव नहीं रहा था इतनी हालत बिगड चुकी थी ।कफ़ वात और पित्त का प्रकोप , मशीनों से खींच - खींच कर कफ़ निकाला जाता , दिल ने तो कब से अपना अलार्म बजा रखा था मगर उसमें भी आप कितने चिन्तातुर रहते थे ये मुझसे बेहतर कौन जान सकता है , बेशक बोल नही पाते थे मगर इशारों से मुझे समय से घर जाने को कहते क्योंकि मेरे बच्चे छोटे थे और सुबह से मैं वहीं आपके पास रहा करती थी ।

एक - एक करके सारे घर के लोग आपसे मिलकर जा चुके थे और एक दिन मेरे पति भी आपसे मिलने आये तो उन्होने मम्मी और मुझे घर भेज दिया ये कहकर ,
तुम लोग जाओ और फ़्रैश होकर आ जाओ कुछ खा पीकर , मैं बाऊजी के पास हूँ ।
ठीक है , बाऊजी हम थोडी देर में आते हैं कहकर हम घर आ गये ।
मगर हमें नहीं पता था कि वो हमारी आखिरी बात थी जो उनसे हमने कही थी क्योंकि आने के बाद पता चला कि वो तो कोमा में चले गए हैं ।
डॉक्टर अपनी हर संभव कोशिश कर रहे थे मगर जब 7-8 दिन हो गए तो उन्होने कहा कि अब कोई उम्मीद नहीं है । लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम लगाओ या नहीं इन्हें फ़र्क नहीं पडने वाला , ये तो अब कोमा में हैं । आप चाहें तो घर भी ले जा सकते हैं यहाँ तो बस बिल बढता रहेगा , अब हम भी कुछ नहीं कर सकते , जितनी साँसें हैं उतनी बस पूरी करेंगे , अब ये नहीं कह सकते कितने दिन ।

मम्मी से पूछ कर और उन्हे सारी सिचुएशन बताकर हमने निर्णय लिया कि घर ले जाया जाए क्योंकि मम्मी को लगा कि बेटियाँ आखिर कब तक रोज - रोज आती रहेंगी अपने बच्चों को सबको छोडकर । घर पर तो वो सारा वक्त उनकी देखभाल कर लेंगी और हम सब आपको घर ले आए।

अब एक - एक दिन गुजरने लगा मगर आपकी हालत में न सुधार हुआ बल्कि घर आने पर तो आपकी आँखें खुल कर स्थिर हो गयीं और आप एक - एक साँस इस तरह लेते खींचकर कि हमारा दिल दहल उठता जाने किससे संघर्ष कर रहे थे और जब बर्दाश्त से बाहर हुआ तो ताऊजी के बेटे से बात हो रही थी तो वो बोले ‘ ईश्वर की सत्ता पर विश्वास कर बेटा , ये तो कर्मभोग हैं भोगने ही पडते हैं , और चाचाजी ने तो उम्रभर ईश्वर को इतना पूजा है तो हो सकता है अब इसके बाद उनका जन्म ही न हो इसलिए इतना कष्ट उठा रहे हैं ‘ ।

भभक उठी थी मैं सुनकर , बर्दाश्त नहीं हो रही थी आपकी तकलीफ़ और भाईसाहब से ही अड गयी कि
कैसा ईश्वर है वो भाईसाहब , जो अपने ही भक्तों को इतना दुख देता है और वो भी उस हालत में जब वो निसहाय है , उसे अपना होश भी नहीं । डगमग़ा गयी थी मेरी आस्था उस दिन , बहुत कोसा था ईश्वर को और समझ आयी थी आपकी बेचैनी उस रात वाली जब आपने भी ईश्वर और अपने जीवन की तपस्या पर प्रश्न उठाया था । एक आह निकली थी उस दिन और कह उठी थी ,
भाईसाहब यदि ईश्वर है न तो मैं एक बेटी होकर कहती हूँ इतनी तकलीफ़ देने से बेहतर है वो उन्हें उठा ले । सह लेंगे उनका न रहना मगर नहीं देखी जा रही उनकी तकलीफ़ कह फ़फ़क फ़फ़क कर रो पडी थी ।
बात न बहस की थी न विश्वास की । बात थी प्रेम की , हमारे रिश्ते की , पिता और पुत्री के उस रिश्ते की जिसका मैं खुद एक अंश थी वहाँ कैसे संभव था अपने ही किसी हिस्से को तकलीफ़ में देख पीडारहित होकर रह सकना ।

हर साँस अपनी जद्दोजहद खुद बयाँ कर रही थी। बहुत मुश्किल से साँस खींचते और फिर 10 – 12 सैकेंड को रुक जाती तो लगता बस यही आखिरी है अगली आयेगी भी या नहीं , दिल हलक में आकर अटक जाता वो दस बारह सैकेंड मानो बरस जितने लम्बे हो जाते , एक उहापोह की स्थिति में जाने कितने बिच्छु पीडा के डंक मार जाते और फिर साँस छोडते मानो रुकी तो कह रहे हों नहीं , अभी नहीं जाऊँगा और दूसरी तरफ़ मृत्यु अपने सारे हथियार आजमा रही हो अपने साथ ले जाने के लिए अपनी हर संभव कोशिश कर रही हो । जाने क्या था और क्यों था ऐसा कोई समझ नहीं पा रहा था ।

रोज कोई न कोई रिश्तेदार देखने आता ही था एक दिन बाऊजी की एक सत्संगी बहन आयीं और उन से भी जब उनकी तकलीफ़ नहीं देखी गयी तो बोलीं , बेटा , पता है ये क्यों नहीं जा रहे ?
कहिये मौसी , क्यों ?
क्योंकि इन्हे इस हाल में भी तुम्हारी माँ की चिन्ता है कि मेरे बाद इसका क्या होगा ? ये किसके सहारे रहेगी ? तुम तीन बेटियाँ हो अपने घर की तो फिर कैसे जीयेगी ये ? नहीं तो अब तक इनकी मुक्ति हो गयी होती । ये इतनी तकलीफ़ सिर्फ़ इन्ही के लिए सह रहे हैं और खुद को आज़ाद नहीं कर रहे ।जिस वक्त ये इनकी चिन्ता से मुक्त हो जायेंगे देखना इस संसार को छोड जायेंगे ।
बेटा तू एक काम कर ,
जी कहिए मौसी
इनके कान के पास जाकर कह , बाऊजी आप मम्मी की चिन्ता मत करो , मैं मम्मी का ख्याल रखूँगी और उन्हें अपने साथ रखूँगी ।
सुनकर आश्चर्य हुआ और मैने बताया
मौसी , बाऊजी कोमा में हैं , इन तक हमारी बात नहीं पहुँचेगी ।
जरूर पहुँचेगी , तू कहकर तो देख ।
नहीं होगा ऐसा , कोमा मे गया इंसान कभी कुछ भी नही सुन पाता मौसी मगर उन्होने एक न सुनी बल्कि बोलीं
बेटा , शरीर क्या है मिट्टी न , चलता किससे है ? अन्दर की चेतना से न , तो वो चेतना तो जागृत है न तभी तो साँस ले रहे हैं और ज़िन्दा भी हैं , तू दे वचन उन्हें देख मुक्त हो जायेंगे , अन्दर की चेतना कभी निष्क्रिय नहीं होती , वो हमेशा जागृत होती है , उसी के होने से ही सारी क्रियायें होती हैं और जब उस तक तेरी आवाज़ पहुँचेगी देखना मुक्त हो जायेंगे ।

विश्वास ऐसी बातों पर भला आज के साइंस के युग में कौन कर सकता है फिर भी मौसी की आस्था और विश्वास के लिए मैने जैसा उन्होने कहा वैसा ही किया । बाऊजी के कान के पास जाकर बोली ,
बाऊजी , बाऊजी
उफ़ ! ‘बाऊजी’ की आवाज़ देते ही उनकी स्थिर आँखें फ़िरीं और शरीर और सिर एक दम चौंक कर हिला इस तरह जैसे मेरी आवाज़ सुनी हो उन्होने , मैं आश्चर्य में डूबी बोल उठी ,
बाऊजी , आप मम्मी की चिन्ता मत करो , मैं हूँ न , मैं ख्याल रखूँगी उनका , मेरे साथ रहेंगी वो , आप इतनी तकलीफ़ मत उठाओ , जाओ आप , मुक्त करो खुद को इस देह की कैद से कहते कहते रो उठी ।

हाय ! कैसी बेटी हूँ जो अपने ही पिता को कह दिया इस तरह जैसे उनसे कोई नाता ही न हो मगर मौसी ने ढाँढस बँधाया और बोलीं बेटा ये शरीर तो एक दिन जाना ही है सभी का मगर क्या तू खुश है उन्हें इस तरफ़ तकलीफ़ में देखकर
नहीं मौसी
तो फिर चुप हो जा और उनकी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रार्थना कर और मम्मी को कहा
तुम अपने सारे जीवन की तपस्या का फ़ल इन्हें दो
और मम्मी ने उनके कहने पर जो सारी उम्र पूजा पाठ , व्रत इत्यादि किये सबका फ़ल बाऊजी के निमित्त कर दिया ।

जाने कितना बडा पत्थर उन्होने दिल पर रखकर ये सब किया होगा इसका तो मैं अन्दाज़ा भी नहीं लगा सकती मगर शायद यही होता है शाश्वत निस्वार्थ प्रेम जो एक स्त्री अपने पति से करती है सिर्फ़ उसे तकलीफ़ से मुक्ति मिल जाए फिर चाहे उसे वैधव्य का दुशाला ही क्यों न ओढना पडे । ये होती है एक पतिव्रता की दृढता ।

मौसी तो चली गयीं ये सब कराकर और मम्मी ने भी कहा देखो बेटा , तुम सब रोज आती हो और देखो अभी पता नहीं तुम्हारे बाऊजी के ऐसे जाने कितने दिन बीतें । देखो मुझे कुछ भी तो करना नहीं होता , और तुम भी तो सिर्फ़ आकर बैठती ही हो अब कोई काम तो है नहीं इसलिए अपना - अपना घरबार देखो और ऐसा करो एक दिन छोडकर एक दिन आ जाया करो बारी - बारी से ।

हमें भी सबको लगा कि शायद मम्मी का कहना सही है और हम सब अपने - अपने घर आ गयीं ये सोच कि अब कल नही जायेंगे परसों कोई भी एक या दो हो आयेंगी।

अभी घर आये मुश्किल से दो घंटे भी नहीं बीते थे कि मम्मी का फोन आया ।
बेटा , तेरे बाऊजी के तो पैर नीले पड गये हैं और जाने कहाँ से इतनी चींटियाँ बिस्तर पर आ गयी हैं लगता है कल डॉक्टर को दिखाना पडेगा फिर से ।

तुम चिन्ता मत करो मम्मी हम कल आ जायेंगे।

रात किसी तरह काटी और सुबह फिर उसी तरह रोज की सारी तैयारी कर दी सबके खाने की लंच पैक कर दिए और निकलने से पहले मैं नाश्ता करने बैठी तो एक भी कौर गले से नीचे न उतरे और लगे अब यदि खाकर नहीं गयी तो पता नहीं सारा दिन कैसे निकले और कहाँ , क्योंकि बाऊजी को लगता है अस्पताल फिर ले जाना पडे तो कुछ तो जबरदस्ती खाना ही पडेगा वरना कैसे भाग दौड कर पाऊँगी । किसी तरह 2-4 कौर मुँह में डाले । इतने में मम्मी का फोन आया तो मेरे पति ने उठाया और उनसे मम्मी की बात हुई तो उन्होने कहा वो आ रही है और मैं भी आता हूँ ।

मुझसे बोले तुम ऐसा करो कुछ पैसे रख कर ले जाओ न जाने कहाँ क्या काम आयें । मैं बच्चों की सैटिंग करके पहुंचता हूँ और तुम ऑटो करके जल्दी से पहुँचो ।

मैंने वैसा ही किया जैसा उन्होने कहा था । वो ही मौसी मुझे ऑटो से उतरते ही मिलीं तो उन्हें बताया कि ये हो रहा है तो बोलीं चिन्ता न कर , अब जल्दी ही मुक्ति हो जायेगी उनकी ।
मैं अविश्वास की पोटली थामे जल्दी - जल्दी घर की ओर बढने लगी और जैसे ही गली के नुक्कड पर पहुँची तो देखा ताऊजी के बेटे की बहू ने बाहर ईँटें फ़ेंकी हैं । सन्देह का कीडा कुलबुलाने लगा और मैं डरते - डरते एक - एक कदम बढाती जैसे ही दहलीज में घुसी तो चौक में सामने ही जमीन पर बाऊजी को लेटे देखा और ………… हंस उड चुका था ।

उस दिन हो गया था मेरा दाह संस्कार और आपका पुनर्जन्म आपकी विशिष्टताओं के साथ जब ये जाना मैने कि :

कितने चिन्तातुर थे आप उस अवस्था में भी जिसमें जाने के बाद सुना है इंसान और उसकी चेतना सब शून्य में स्थित हो जाती हैं मगर ये शायद आपके निस्वार्थ प्रेम की ही बानगी थी जो बता रही थी कि कितना स्नेहमयी व्यक्तित्व था आपका हर शख्स के लिए प्रगाढ स्नेह वो भी इतना कि मृत्यु से भी लड गये और वो भी हाथ बाँधे मानो इसी इंतज़ार में खडी रही कि कब आज्ञा हो और वो अपना कर्तव्य पूरा कर सके । मानो एक बार फिर भीष्म का जन्म हुआ हो और वो प्रतिज्ञा बद्ध हों कि जब तक हस्तिनापुर को चहुँ ओर से सुरक्षित न देख लूँ प्राण नहीं छोडूँगा और मानो आपने आत्मसात कर लिया हो उस चरित्र को पूरे का पूरा और दिया हो एक वचन खुद को “जब तक अपनी अर्धांगिनी के भविष्य के प्रति निश्चिंत नहीं हो जाऊँगा तब तक इस संसार से विदा नहीं लूँगा फिर उसके लिए चाहे मृत्यु से संघर्ष ही क्यों न करना पडे , फिर चाहे उसके लिए अपनी एक – एक साँस के लिए लडना पडे ,”  यूँ लगा आप भी भीष्म की तरह शर शैया पर लेटे हों और मौत हुँकार भरती जाने कितने अपने डंक चुभो रही हो और आप एक – एक साँस का कोई कर्ज़ उतार रहे हों , ऐसा था स्नेहमयी ममतामयी व्यक्तित्व ।

 अब इसे ईश्वर का चमत्कार कहो , उसमें आस्था कहो या प्रकृति या इंसान की प्रबल इच्छाशक्ति का कमाल मगर मैने ये तब जाना क्योंकि मेरे वचन देने के बाद आपने चौबीस घंटे भी नहीं लिए खुद को मुक्त करने को जो पिछले 22 दिनों से आप संघर्षरत थे ईश्वर से , प्रकृति से या कहो खुद से ।

तब अहसास हुआ कि कोमा में गए हुए इंसान की चेतना तक जरूर पहुँचती है बात बेशक वो जवाब न दे सके मगर यदि उसके अन्दर कोई इच्छा या लालसा बची होती है तो शुरु हो जाता है एक संघर्ष मृत्यु से । मानो मृत्यु अपने सभी उपकरण लगा रही हो प्राण खींचने के और इंसान की प्रबल इच्छाशक्ति विवश कर रही हो उसे ठहरे रहने को , कितना कठिन संघर्ष करना पडता होगा ये तो कोई भुक्तभोगी ही जान सकता है मगर उस दिन लगा इंसान की इच्छा शक्ति के आगे प्रकृति भी विवश हो सकती है ।
जाने क्यों आपके जाने के बाद अब तक आपकी वो दशा स्मृति से हटती ही नहीं और एक अपराध बोध से ग्रसित हो जाती हूँ क्योंकि उस वक्त जैसा डॉक्टर ने कहा वैसा ही हमने किया था क्योंकि हमें लगता था डॉक्टर जो कह रहा है सही कह रहा है मगर आज मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है और अन्दर से एक आवाज़ उभरती है कि हमें डॉक्टर के उस निर्णय को नहीं मानना चाहिए था कि लाइफ़ सपोर्ट सिस्टम हटा दिये जायें क्योंकि कम से कम तब आप एक एक साँस के लिए शायद इस तरह नहीं लडते बेशक ये बात आज तक किसी को नहीं कही न बतायी मगर मेरे अन्दर मेरी आत्मा मुझे धिक्कारती है क्योंकि जिस दिन से ये अहसास हुआ कि कोमा में भी आपकी चेतना जागृत थी उस दिन से यूँ लगा जैसे हम ही आपके सबसे बडे दुश्मन बन गए थे । कैसे अपने लोग ही अन्जाने में अपनों की तकलीफ़ का हिस्सा बन जाते हैं कभी सोच भी नहीं सकती थी और अब ये निर्णय लिया है कि कभी किसी की भी ज़िन्दगी में यदि ऐसी कोई स्थिति आयी तो कभी ऐसा निर्णय नहीं लेंगे क्योंकि अह्सास हो चुका है बेशक मस्तिष्क शून्य हो जाए मगर चेतना तो सब भोगती ही है ,सुनती भी है बस उत्तर ही नहीं दे पाती । ये फ़ाँस शायद ज़िन्दगी भर मेरे ह्रदय में चुभती रहेगी जाने कभी इससे निजात मिलेगी भी या नहीं , नहीं जानती । अब तो सिर्फ़ उस दर्द , उस पीडा को महसूस कर मानो हर पल अंगारों पर लोटती हूँ ।
आपका व्यक्तित्व मेरा आदर्श बना और आज मैं खुद में आपको देखती हूँ ।
अब ढूँढती हूँ खुद को तो कहीं नहीं मिलती …………मिलते हैं तो सिर्फ़ और सिर्फ़ आप ………क्या इसी तरह होता है हस्तांतरण प्रकृति का ?




रविवार, 23 नवंबर 2014

मोहन ! कल जो तुम मुस्कुराते मिले



मोहन !
कल जो तुम मुस्कुराते मिले 
मेरी जन्मों की साध मानो पूर्ण किए 

अब खोजती हूँ मुस्कुराने के अर्थ 
जाने कौन से भेद थे छुपे 
अटकलें लगाती हूँ 
मगर प्यारे 
तुम्हारे प्रेम की न थाह पाती हूँ 

जाने कौन सी अदा भा गयी 
जो इस गोपी पर दया आ गयी 
प्रेम की यूं बाँसुरी बजायी 
मेरी प्रीत दौड़ी चली आई 

और न कुछ मेरी पूँजी है 
ये अश्रुओं की खेती ही बीजी है 
जो तुम इन पर रिझो बिहारी 
तो अश्रुहार से करूँ श्रृंगार मुरारी 

हे गोविन्द! हे केशव! हे माधव !
अब विनती यही है हमारी 
छ्वि ऐसी ही दिखलाया करना 
जब जब निज चरणन में बुलाया करना 

नैनन में जो बसी छवि प्यारी 
मैं भूली अपनी सुध सारी 
प्रीतम बस यही है मेरी प्रीत सारी 
तुझ पर जाऊँ तन मन से बलिहारी 




 (कल शनि अमावस्या पर बाँके बिहारी के दर्शनों का उनकी कृपा से सौभाग्य प्राप्त हुआ और मेरा मन खोजने लगा अकारण करुणा वरुणालय की कृपा का कारण )

गुरुवार, 20 नवंबर 2014

आज कैसा वक्त आ गया है

आज कैसा वक्त आ गया है जहाँ संत शब्द से इंसान का विश्वास ही उठ गया जहाँ कदम कदम पर ढकोसले बाज सामने आ रहे हों वहाँ कैसे इंसान किसी पर विश्वास कर सकेगा ये तो अलग बात है उससे जरूरी बात है कि अब जनता के विश्वास को कोई इस तरह न ठग सके उसके लिए सरकार ठोस और निर्णायक कदम उठाए ताकि आगे कोई खुद को संत कहने से पहले करोडों बार सोचे या संत बनने से पहले ………आज जरूरी है जितने भी देश में आश्रम खोले हुए हैं उनका हर महीने सरकार द्वारा अवलोकन हो बाकायदा तलाशी अभियान चालू हो और वहाँ सरकार अपना ऐसा कोई बॉक्स आदि लगाये जहाँ वहाँ रहने वाले शिकायत डाल सकें और वहाँ होती अनैतिक गतिविधियों की जानकारी दे सकें और ये बॉक्स सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय जाएं तब जाकर ऐसे आश्रमों की अनैतिक गतिविधियों पर लगाम कसी जा सकती है वरना विचारणीय बात ये है कि एक आश्रम में हथियारों का क्या काम और दूसरी बात तहखाने बनाने आदि जो भी ऐसी जगह हों वो फ़ौरन बंद कर दी जाएं तब जाकर जनता को कुछ विश्वास होगा वरना तो ऐसे लोग फिर वो आसाराम हों या रामपाल या कल कोई और जनता के विश्वास को ठगते रहेंगे ………और सबसे बडी बात क्या संतताई की आड में कल ऐसा नहीं हो सकता कोई आतंक का पर्याय बन जाये या  पडोसी देश का गुप्तचर और वहाँ से आतंकवादी गतिविधियाँ संचालित होने लगें क्योंकि जब एक अदना से इंसान को पकडने के लिए इतनी पुलिस लगी और उसने कमांडो तक तैनात कर रखे थे तो सोचने वाली बात है कल किस हद तक समस्या गहन हो सकती है दूसरे शत्रु देश इसका फ़ायदा उठा सकते हैं तो वो वक्त आए उससे पहले अब जरूरी हो गया है कि हर आश्रम के लिए कडे और सख्त नियम बनाए जाएं फिर चाहे वो कितना ही बडा संत हो ………यदि इन लोगों को इसी तरह छूट दी जाती रही तो देश की सुरक्षा के मद्देनज़र दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं इसलिए सबसे बडी बात देश की सुरक्षा एकता और अखंडता से बडा कोई धर्म नहीं हो सकता ये बात सबको समझ आनी चाहिए …………

शनिवार, 15 नवंबर 2014

जब एकान्त कचोटे और भीड भी



जहाँ न पीढियों की उपेक्षा है 
न सदियों का सहवास 
न कुंठा के त्रास 
न विद्रूपताओं के आकाश 
समीप दूर के गणित से परे 
जहाँ महकते हों मन के गुलाब 

स्थितियों परिस्थितियों से गुजरता प्राणी 
खोज को नहीं करता प्रयाण 
किसी हिमालय की गुफ़ा में 
 नहीं पाता दिग्दर्शन 
मन:स्थिति के परिवर्तन का 
जहाँ हो हर शंका का निवारण 
तब तक नही जान पाता ये सत्य 

जब एकान्त कचोटे और भीड भी 
शायद उससे परे भी है कोई ब्राह्मी स्थिति

बुधवार, 5 नवंबर 2014

बंजर अश्रुबिन्दु ---एक अवस्था



सुनो कान्हा
आज राधा का स्वर चिन्तित था
ये अलौकिक प्रीत का डर था
प्रियतम निकट था मगर फिर भी
बिछड जाने का भय था
गज़ब का समर्पण था
सम्मोहन था
प्रेम का अद्भुत रंग था
ना जाने कौन सी छाया ने घेरा था
जो राधे के मुखमंडल पर छायी
विषाद की रेखा थी
यूँ ही नही आज राधा का मन आधा था
यूँ ही नही आज राधा ने थामा
कान्हा का कान्धा था


आह! प्रीत भी कैसी होती है
भय से जिसकी नज़दीकी होती है
प्रेमी के बिछडने के भय मे ही
एक ज़िन्दगी बसर होती है
मगर ये महज एक कोरा भ्रम तो ना था
राधा को कुछ तो अंदेशा हो गया था
तभी तो आज कान्हा के कांधे पर
थकित उदास राधा का मन
श्यामली चितवन मे खो गया था
जैसे पी जाना चाहती हो आज ही
सारा प्रेमरस एक ही घूंट मे
जैसे जी जाना चाहती हो आज ही
उम्र की हर घडी एक ही पल मे
जैसे समा जाना चाहती हो आज ही
मोहन की मोहिनी मोहन मे
उफ़ ! ये नारी ह्रदय कितना व्याकुल था
जो एक अंदेसा मन मे उपजा था
उसी मे चिन्तातुर था
प्रीत की शायद यही तो रीत होती है
प्रेमी से बिछडने की कल्पना भी असह्य होती है
वहाँ राधा ने जैसे सब जान लिया था
शायद आने वाले कल को भांप लिया था
तभी तो आज अपने श्याम के कांधे पर
मुरलिया की छांव मे
अश्रु तो ना ढलकाया था 


मगर
शब्दों से परे मोहन भी जान गये थे
तभी तो आज वो भी व्याकुल हुये थे
और राधा को यूँ निहार रहे थे
जैसे समा लेना चाहता हो सागर
अपने आगोश मे सारे जहान के जलप्रपात को
जैसे मिलन और बिछडने की अन्तिम वेला
के बीच की महीन लकीर को
पार करना चाहकर भी पार ना करते हों
और अपनी अपनी हदों मे खडे
सिर्फ़ प्रेम की छिटकी चाँदनी को पीते हों
एक दूजे के होने पर भी
ना होने की लक्ष्मण रेखा
के बीच जैसे आज चाँद सुलगा हो
और मोहन को जैसे आज चाँद ने ठगा हो


ये कैसी सागर की असीम शांति थी
जो तूफ़ान का संकेत बनी थी
कल की ना जिसे खबर थी
वो आज ही कुछ लम्हों मे सिमटी थी
अन्तिम विदाई की बेला मे
शायद ये ही अन्तिम मिलन रहा होगा
तभी तो श्याम ने ना कुछ कहा होगा
यूँ ही नही राधा का मुख कुम्हलाया होगा
यूँ ही नही लम्हा वहाँ ठिठका होगा


तभी तो देखो ना
हर पत्ते , हर बूंटे , हर डाल और पात पर
कैसी खामोश उदासी छायी है
मधुबन भी ये देख सकपकाया होगा
सुना है कुछ अघटित घटित होता है
तो उससे पहले अपशकुन होने लगते हैं
है ना मोहन! देखो ना
यूँ ही नही राधा की खामोश खामोशी ने सब ताड लिया है

शायद तभी
सौ साल के बिछोह की अव्यक्त अभिव्यक्ति थी राधा के मुखकमल पर छायी उदासी



सोमवार, 27 अक्टूबर 2014

पशोपेश में हूँ

जिस तरह 
संदेह के  बादलों से नहीं नापी जा सकती पृथ्वी की गहराई
दम्भ के झूठे रागों से नहीं बनायीं  जा सकती मौसिकी 
उसी तरह 
संदिग्ध की श्रेणी में रखा है खुद को 

तुम्हें चाहना 
फिर भी न पूरा पाना 
एक कमी का अधूरा रहना 
और फिर भटकना उम्र के बीहड़ में 
प्रेम का इकतारा ले 
नहीं हूँ सिर्फ इसी से संतुष्ट 

चाहने की प्रक्रिया के परिमाण को 
मापने के यंत्र नहीं होते 
तो कैसे संभव है अधूरापन 
जब तक न तुम्हें पूरी  तरह जान लूँ 

खोज के बिन्दुओं पर लगे पहरों को 
छिन्न भिन्न करने को आतुर 
जब भी पहुँचती हूँ निकट 
एक संदेह की मछली कुलबुलाती है 
और तुम हो जाते हो 
फिर पहुँच से दूर …… बहुत दूर 

पास और दूर होने की प्रक्रिया में 
कभी बनाते हो खुद को संदिग्ध 
तो कभी छोड़ देते हो सारे संदेह के तीर मेरी ओर 

खोज , परिमाण , चाहत , संदेह और तुम 
मेरी विध्वंसता तक 
मुझे ही कर देते हैं खड़ा शक के घेरे में 
जो तुम से होकर गुजरता है 
और हो जाती हूँ मैं निःसहाय 
सच और झूठ की वेदी पर 

और पड़ जाती हूँ सोच में 
किसी को चाहना और पाना एक बात हो सकती है 
मगर यदि किसी को जानना हो 
संदेह की सीपियाँ राहों में बिखरी हों 
और पहचान के चिन्ह प्रश्नचिन्ह बने खड़े हों 
तो शक की ऊँगली खुद की तरफ ही क्यों उठी होती है .......... माधव !!!

संदिग्ध तुम हो या मैं………… पशोपेश में हूँ 

बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

शुभ दीपावली

दीपावली सबके जीवन में अज्ञानता के अंधेरे को दूर कर खुशियों और ज्ञान का उजाला करे । 


सभी मित्रों को दीपावली की अनन्त शुभकामनायें ।



आज के 'हमारा मैट्रो' में प्रकाशित दीपावली पर मेरे विचार





बुधवार, 15 अक्टूबर 2014

न कोई गाँव न कोई ठाँव

न कोई गाँव न कोई ठाँव 
फिर भी मुसाफ़िर 
चलना है तेरी नियति

अंजान दिशा अंजान मंज़िल
फिर भी मुसाफ़िर
पहुँचना है तेरी नियति 

देह के देग से आत्मा के पुलिन तक ही है बस तेरी प्रकृति

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

रावण कभी नहीं मरा करते




हर साल रावण को जलाना प्रतीकात्मक संकेत 
मगर फिर भी अंजान रहना इंसानी फ़ितरत से 
नहीं , मुझमें रावण नहीं,  राम है 
फिर क्यों तेरे व्यवहार से जली पडोसी की ऊँगली है 
जब तक ये नहीं जान पाओगे रावण को न मार पाओगे 

जब तक मन रूपी रावण पर 
संयम और संतोष का अंकुश नहीं लगाओगे
रावण का वध सम्भव ही नहीं 

रावण कभी किसी भी युग में नहीं मरा करते 

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

नवदुर्गा के पूजन यही उद्देश्य है बतलाया


महागौरी सिद्धिदात्री का तेज समाया 
माँ ने आज अदभुत रूप बनाया 

सच्चे मन से जो कोई ध्याता 
हर मनोरथ सिद्ध हो जाता 

नव कन्या के पूजन तक ही न सीमित रहना 
गृहकन्या को भी उचित मान सम्मान देना 

नवदुर्गा के पूजन यही उद्देश्य है बतलाया 

जिसने जीवन में इसे ध्याया 
वो ही माँ का सच्चा भक्त कहलाया 



बुधवार, 1 अक्टूबर 2014

भक्ति के आधार



सप्तम दिवस माँ का कालरात्रि स्वरूप 
शुभफ़ल देने वाली माँ शुभंकरी अनूप  

भूत प्रेत भय ग्रह बाधा पल में  दूर भगाए
नाम स्मरण भर से सब व्याधि मिट जाए

श्रद्धा विश्वास ही भक्ति के आधार 
कालरात्रि की है भक्तों महिमा अपार 

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

माँ की महिमा




छटा दिवस कात्यायनी धारे अद्भुत स्वरूप 
दिव्य अलौकिक तेज से हो जाओ भरपूर 

हो रिद्धि सिद्धि के साथ से जीवन भरपूर
आज्ञा चक्र की जागृति का ये अद्भुत प्रभाव

नित माँ की महिमा का करो तुम गुणगान
फिर रोग शोक संताप का हो जाता है नाश

सोमवार, 29 सितंबर 2014

स्कन्ध रूप लिया धार



पञ्च दिवस माँ ने स्कन्ध रूप लिया धार 
तब भक्तों में किया एकाग्रता का संचार 

अच्छे और बुरे का खुद ही करो ध्यान 
बन खुद के सेनापति निर्णय करो तत्काल 

परम सुख और शांति का अनुभव जब हो जाए 
शक्ति की कृपा को तब हर प्राणी मान जाए 

रविवार, 28 सितंबर 2014

आओ करें आराधना



चतुर्थ दिवस चतुर्थ रूप कू्ष्मांडा का अनूप 
धन धान्य सम्पदा से जीवन भरती भरपूर 

माँ की आराधना करे रोग शोक का नाश  
आयु यश और बल से भरा रहे भण्डार 

माँ की दिव्यता का नित्य करो गुणगान 
भवसागर से बिन प्रयास हो जाओगे पार 

शनिवार, 27 सितंबर 2014

चन्द्रघंटा की टंकार



तृतीय दिवस तृतीय रूप माँ शिवदूती कहलाए 
जो भी नतमस्तक हो सर्व सिद्धि पा जाए 

काम क्रोध लोभ मोह अहंकार शत्रु जब सताये 
चन्द्रघंटा की टंकार से हर अमंगल मिट जाए 

दिव्य स्वरूप दिव्य ज्योति जगमग चमकी जाए 
सच्चे दिल से करो अराधना दिव्य दर्शन हो जाए

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

पूजा वही होती सार्थक



द्वितीय दिवस द्वितीय रूप का आओ करें आह्वान 
माँ की दिव्य ज्योति से पायें परम विश्राम

पूजा वही होती सार्थक जो देती ये संदेश 
जब जीवन में तुम उतारो माँ का ये उपदेश 

श्रम परिश्रम बिना न होते सफ़ल अभियान 
ब्रह्मचारिणी के इस रूप की यही महिमा महान


गुरुवार, 25 सितंबर 2014

वन्दन बारम्बार



प्रथम दिवस प्रथम रूप का दर्शन 
कर बने सम्पूर्ण जगत  खुशहाल 

शक्ति  औ दृढता करो माँ प्रदान 
जो दे जीवन को स्थिरता का आधार 

माँ के अदभुत रूप को करें वन्दन बारम्बार
तेजोमयी के तेज से प्रकाशित हो जाए संसार 

 नवरात्रि सभी के लिए मंगलमय हों 

रविवार, 21 सितंबर 2014

प्रेम -- एक प्रश्नचिन्ह -- आखिर क्यों ?

जाने कितने युग गुजर गये व्यक्त करते करते मगर क्या कभी हुआ व्यक्त ?पूरी तरह क्या कर पाया कोई परिभाषित ? नहीं , प्रेम- विशुद्ध प्रेम परिभाषाओं का मोहताज नहीं होता तो कैसे उसे उल्लखित किया जा सकता है ? कैसे उसके बारे में दूसरे को समझाया जा सकता है ? 

जब आप प्यार में होते हो तो वो शारीरिक होता है प्यार इंसान सभी से करता है फिर वो अपने हों या पराये या पेड पौधे , पशु या पक्षी । इंसान की फ़ितरत है प्यार करना । प्यार में भी अन्तर आ जाता है कहीं वो दयाभाव से होता है तो कहीं करुणा से तो कहीं किसी अपने के प्रति अपार स्नेह के रूप में मगर प्रेम उससे बहुत आगे की श्रृंखला में आता है जहाँ पहुँचने के बाद और कुछ पाना शेष न रहे , कोई आपमें इच्छा न रहे , सब एक में ही समाहित हो जाए या आप का" मैं " मिट जाए बस एक वो ही नज़र आए आप उसके अक्स में ऐसे सिमट जाएं कि दो होने का अहसास ही गुम हो जाए वो होता है अलौकिक प्रेम जो कम से कम इंसानों के बीच तो नहीं दिखता या मिलता। इंसान तो वशीभूत होता है अपनी जरूरतों के और जब आप किसी के साथ रहते हैं तो वो आपकी आदत बन जाता है और जो आदत बन जाए अगर उससे आपको बिछडना पडे हमेशा के लिए तो वहाँ एक ऐसा ज़ख्म बन जाता है जो जल्दी से नहीं भरता मगर एक दिन भरता जरूर है क्योंकि ये इंसान का स्वभाव है या उसकी स्मृति ऐसी है कि उसे उन संबंधों और रिश्तों को भुलाना पड जाता है क्योंकि जो चला गया वो वापस नहीं आ सकता जानता है वो ये सत्य इसलिए उसे उस सत्य को स्वीकारने में वक्त लगता है लेकिन जब स्वीकार लेता है तो स्मृति पर भी धूल गिरने लगती है और अब उसकी याद की वेदना इतना नहीं कचोटती । कोई याद दिलाए तो याद आता है तब भी उस स्तर तक नहीं उतरता जिस पर वो उससे बिछडते वक्त होता है जो यही सिद्ध करता है कि इंसान का प्रेम सिर्फ़ शारीरिक स्तर तक ही होता है और वो भी किसकी उसके जीवन में कितनी अहमियत है या थी सिर्फ़ उस स्तर तक ही लेकिन ये कहा जाए कि दो इंसानों में अलौकिक विशुद्ध प्रेम होता है तो एक नामुमकिन सा ख्याल भर लगता है क्योंकि आज के भौतिक युग में कहाँ इतना वक्त है इंसान के पास , उसे आगे बढना है , जीवन चलता रहता है तो वो नहीं बँधा रह सकता निराशा के एक ही खूँटे से और आगे बढने के लिए जरूरी होता है अतीत की परछाइयों से खुद को मुक्त करना । 

ऐसे में कैसे आज के भौतिक युग में इंसान विशुद्ध प्रेम के सहारे जीवनयापन कर सकता है और यदि विशुद्ध प्रेम किसी का होगा भी तो वो सिर्फ़ प्रभु से होगा इंसान से नहीं । अब प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में प्रभु से विशुद्ध प्रेम होना ही प्रेम की उच्चतम अवस्था है ? क्या प्रेम को मिल जाता है उसका स्वरूप ? क्या इस तरह हो जाता है प्रेम पूरी तरह व्यक्त ? क्या 'प्रेम ही खुदा है और खुदा ही प्रेम' को चरितार्थ किया जा सकता है इस तरह ? क्योंकि कभी कभी लगता है कि प्रेम भी जीवनयापन के लिए मात्र एक उपकरण है ताकि इंसान इसका अवलम्बन ले जीवन जी सके वरना देखा जाए तो ये जानने की प्रक्रिया का अंत तो खुद पर ही होता है जब इंसान अपने अन्तस में उतरता है , खुद को पहचानने की कोशिश करता है और जिस दिन खुद को जान लेता है प्रेम , ईश्वर , संसार सब मिथ्या हो जाते हैं उसके लिए क्योंकि तब उसे लगता है जो कुछ है सिर्फ़ वो ही है , सब उसी की दृष्टि का विलास है उससे इतर कुछ भी तो नहीं है और जब ये बोध हो जाता है तो खत्म हो जाता है संसार ,प्रेम व  उसका अस्तित्व । जो यही सिद्ध कर रहा है कि प्रेम भी मात्र एक उपकरण भर है जब तक कि इंसान को बोध न हो जाए फिर एक अलौकिक आनन्द में समाया इंसान अपने मौन में ऐसा समाहित हो जाता है जहाँ दो का भास खत्म हो जाता है और अपनी नैसर्गिक आनन्दानुभूति में डूब जाता है मगर जब तक न इस हद तक पहुँचता है तब तक जीवन जीने के लिये प्रेम और प्यार के उपकरणों का प्रयोग करता है और एक भटकाव में जीता रहता है । 

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

किससे करूँ जिद

किससे करूँ जिद 
कोई हो पूरी करने वाला तो करूँ भी 
और तुम , तुमसे उम्मीद नहीं 
क्योंकि बहुत जिद्दी हो तुम 
मुझसे भी ज्यादा 
और मुझसे क्या 
इस दुनिया में सबसे ज्यादा 
फिर भला कैसे संभव है मेरा पानी पर दीवार बनाना 
देखा है तुम्हारी जिद को 
और देख ही रही हूँ जाने कब से 
कितने युग बीते तुम न बदले 
और न ही बदली तुम्हारी परिभाषा , तुम्हारे मापदंड 
वैसे भी सुना है 
जहाँ चाहत होती है वहाँ ही जिद भी होती है 
मगर मुझे तो पता ही नहीं 
तुम्हारी चाहत मैं कभी बनी भी या नहीं 
तो बताओ भला किस आस की पालकी पर चढूँ 
और करूँ एक जिद तुमसे तुम्हारे दीदार की ……ओ मोहना !!!

शनिवार, 13 सितंबर 2014

तुम्हें पाने और खोने के बीच


तुम्हें पाने और खोने के बीच 
तुम्हारे होने और न होने के बीच 
डूबती उतराती मेरे विचारों की नैया 
मेरा भ्रम नहीं तुम्हारा निर्विकल्प संदेश है 
जो मैने गुनगुनाया तब तुम्हें पाया ………ओ कृष्ण ! 

अखण्ड समाधिस्थ की स्थिति में स्थितप्रज्ञ से तुम 
हो जाते हो कभी कभी आत्मसात से 
तो कभी विलीन इतने दूर 
कि असमंजस की दिशायें 
कुलबुलाकर छोडने लगती हैं धैर्य के संबल 

निष्ठा श्रद्धा विश्वास और प्रेम के तराजू पर 
काँटे कभी समस्तर पर नही पहुँचते 
तुम्हारा ज्ञान हो जाता है धराशायी प्रेम के अवलंबन पर 
कहो तो कैसे तुममें से तुम्हें जुदा करूँ 
कैसे खुद को फ़ना करूँ 
जो निर्बाध गति हो जाए 
प्रेम प्रेम में समाहित हो जाए .......कहो तो ओ कृष्ण !

शनिवार, 6 सितंबर 2014

एक शून्यता और मैं

कोई उन्माद नहीं

कोई जेहाद नहीं


मन मौन के प्रस्तरों को


छिद्रित करने को आतुर नहीं


फिर विचार श्रृंखला


ध्वस्त हो या बिद्ध


मौसम ऊष्ण हो या शीत


जीवन की क्षणभंगुरता में


मोह के कवच और लोभ के कुण्डल


कितने ही आकर्षित करें



एक शून्यता और मैं निर्बाध विचरण कर रहे हैं

फिर किस्म किस्म के कुसुम अब कौन चुने और क्यों ?

शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

प्रधानमंत्री जनधन खाता योजना कितनी सार्थक

प्रधानमंत्री जनधन खाता योजना कितनी सार्थक रहेगी ये तो वक्त ही बतायेगा मगर आज तो एक एक आदमी तीन तीन बैंकों में खाते खुलवा रहा है उसका लाभ पाने को जो यही सिद्ध कर रहा है ………आप मौका तो दीजिये ………अब तक औरों ने लूटा अब हम खुद लूट लेंगे ………जाने क्या सोच कर ये योजना लागू की गयी है जिससे बात करो यही कहता है ये फ़्लॉप होगी यहाँ तो हर डाल पर चोर बैठे हैं ………कहीं ये सिर्फ़ अपनी छवि सुधारने भर की कवायद तो नहीं ? कहीं इस तरह जनता के दिल में जगह बनाने की कोशिश तो नहीं फिर चाहे इस योजना का लाभ भी सबको मिले न मिले मगर जगह जगह फ़ैले सांप्रदायिक तनाव , अव्यवस्था , बलात्कार जैसी घटनायें आदि जो कुछ देश में हो रहा है उससे ध्यान भटकाने का प्रयास है …………फ़िलहाल तो इस योजना का कोई औचित्य नज़र नहीं आ रहा जब तक सही ढंग से लागू न की जाती ………आनन फ़ानन खाते खोलो बस एक फ़रमान सुना दिया गया मगर ये नही सोचा गया क्या वास्तव में इसका फ़ायदा जिस तबके के लिए प्रयोग किया गया है उसे होगा भी या नहीं ? …………

सही या गलत तो भविष्य ही बतायेगा मगर एक व्यक्ति यदि तीन तीन जगह खाते खुलवायेगा तो सोचिए नुकसान किसका होगा ? क्या देश का और टैक्स देने वालों का नुकसान नही होगा इससे ? ये तो अभी एक ही उदाहरण पता चला है ऐसे न जाने कितने और नये घोटाले इस माध्यम से शुरु हो जायेंगे ………क्योंकि इसका फ़ायदा उठाने के लिए शरारती तत्व भी सक्रिय हो जाएंगे तब कैसे पता चल पायेगा कि किसने कितने खाते खुलवाए ? क्या एक सिर्फ़ आधार के माध्यम से ये सब संभव हो पायेगा ? …………इंतज़ार में हैं अब तो हम देखें अच्छे दिन और क्या क्या गुल खिलाते हैं ।