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शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

मन की वीणा

मन की वीणा विकल हो रही है
तुम्हारे दरस की ललक हो रही है

जाएँ तो जाएँ कहाँ गुरुवर
ज्ञान का दीप जलाएं कहाँ

आत्मदीप अब जलाएं कहाँ
चरणकमल कृपा अब पायें कहाँ

मेरे मन में बसा अँधियारा था
गुरु आपने ही किया उजियारा था

अब वो प्रेमसुधा हम पायें कहाँ
कौन प्रीत की रीत निभाये यहाँ

मेरे मन की तपन कौन बुझाए यहाँ
गुरुवर कौन जो तुमसे मिलन कराये यहाँ

ये बेकल मन की अटपटी भाषा
तुम्हारे बिन कोई समझ न पाता

अब ये भावों की समिधा चढ़ाएं कहाँ
गुरुदरस की लालसा मिटायें कहाँ

गुरुवार, 16 जुलाई 2015

अब कैसे बीते ये उम्र सारी




अब कैसे बीते ये उम्र सारी
अब तो लगी है प्यारे लगन तुम्हारी
लगन तुम्हारी , लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते -------

१) छोड़ गए हो मझधार कन्हाई
रो रो हारी ये गोपियाँ बेचारीं
अब कहाँ जाएँ , बिरहा की मारीं
अब तो लगी है मोहन लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते ----------

२) दिन हैं पतझड़ रात वीरानी
तुम्हारे बिना न लागे , कोई ऋतू प्यारी
दरस दीवानी फिरें , गली गली मारीं
अब तो लगी है श्याम लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते --------

३) मन की कुञ्ज गलिन में कब आओगे मुरारी
सूनी पड़ी है प्यारे , अटरिया हमारी
कहाँ खोजें अब तुम्हें हम, किस्मत की मारीं
अब तो लगी है प्यारे लगन तुम्हारी
अब कैसे बीते ये उमरिया सारी

४) घर आँगन न , अब भाये बिहारी
बिरहा की घड़ियाँ दहकें रह रह मुरारी
किस आस पे गुजरे, अब ये उम्र सारी
कहाँ छोड़ गए हो , हे कृष्ण मुरारी
गली गली फिरतीं  , बिरहा की मारी
अब कैसे बीते ................

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ?



ओ कृष्ण 
नहीं मालूम तुझसे 
खुश हूँ नाराज या तटस्थ 
बस कहीं न कहीं 
अन्दर ही अन्दर हो गयी हूँ घायल मैं 

और तुम जानते हो वजह 
बेवजह कुछ नहीं होता 
सुना था कभी 
मगर वजह भी नहीं समझ आई 

या तो मिलते ही नहीं 
मिले तो बिछड़ते नहीं 
ये आँख मिचौली खेलने को 
तुमने मुझे ही क्यूँ चुना 
कभी समझ न पायी मैं 

तुम्हारे होने और न होने के चक्रव्यूह में घिरी मैं 
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा करती हूँ 
सुना है 
तुम्हारे पास हर प्रश्न का उत्तर होता है 
तो देना जवाब यदि हो सके तो 

क्योंकि 
इस बार बात तुम्हारे अस्तित्व की है 
और मेरे द्वारा तुम्हें 
स्वीकारने और अस्वीकारने की 
कोरे भ्रम भर तो नहीं हो न तुम ?

होती होंगी तुम्हारी लीलाएं विलक्षण 
मगर यहाँ जो प्रेम रस की बहती 
अजस्र धारा सूख गयी है 
और रेत रह रह शूल सी सीने में चुभ रही है 
वहां मैं एक अंतहीन प्यास में तब्दील हो गयी हूँ 
कैसे करोगे साबित और भरोगे रीता घट 

और सुनो 
तुम्हारे रूप के सिवा दूजा रूप कोई निगाह में चढ़ता नहीं अब 
ऐसे में कैसे काजल की धार बन समाओगे फिर से नैनन में 

और सुनो 
ये तटस्थता आत्मबोध का पर्याय नहीं है 

बंजर जमीन को उपजाऊँ बनाने हेतु क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ?