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सोमवार, 21 सितंबर 2015

रंग सांवला होने लगा है











निहारूँ छवि जब जब आईने में 
खुद को न पहचान पाऊँ 
रंग सांवला होने लगा है 
सखी री 
जियरा बावरा होने लगा है 

कोई पिया बसंती छुप गया है 
मेरा रंग रूप ले उड़ गया है 
कित खोजूँ मैं रंग की गागर 
जो मिल जाये खोया यौवन 
ये कैसा पिया से आलिंगन हुआ है 
श्याम रंग मेरा हो गया है 

प्रीत के रंग की गुलाबी गागर में 
जियरा मेरा उलझ गया है 
श्याम से मिलन को तरस गया है 
यूं ही नहीं सलोना रंग मेरा हुआ है 
श्याम का ही मुझ बावरिया पर 
सखी री
शायद परछावां पड़ा है 
तभी तो तन मन सब 
श्याममय हुआ है 

अब की श्याम ने 
ये कैसा रंग डाला
रंग सांवला होने लगा है 
सखी री 
जियरा बावरा होने लगा है 

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

आओ के बतियाओ मुझसे

चुप्पी खलनायिका सी सोच के कूपे में धरना दिए बैठी है . ..... कहने सुनने को कुछ नहीं बचा , अगर है तो एक विरक्ति सी जहाँ जो है जैसा है ठीक है , जो हो रहा है ठीक हो रहा है ..........सोचने समझने की फसल को मानो पाला पड़ गया हो और एक ठूंठ अकड़ा खड़ा हो मानो कहता हो कर लो जो तुमसे हो सके ........नहीं हिला सकते तुम मेरी अटल भक्ति को अपनी कोशिशों के पहाड़ से ..........

ये कोई वैराग्य नहीं है और न ही भक्ति की कोई अवस्था ......... न ही दीन हीनता उभरी है बस एक तटस्थता ने बो दिए हैं बीज अपने ........ कोई नहीं है जो ध्यान दे और मुझे चाहिए एक साथ जो अंतर्घट के किवाड़ों को झकझोर डाले , खोल डाले भिड़े हुए कपाट और करा दे दुर्लभ देव दर्शन .........शायद टूट जाये चुप्पी का कांच

खुद को समझना कभी कभी कितना मुश्किल हो जाता है तो फिर व्यक्त करना कैसे संभव है ..........ऐसे में करने चल देते हैं दूसरों का आकलन जबकि खुद को ही किसी भरोसे नहीं छोड़ सके , खुद के अस्तबल में ही हिनहिनाते चुप के घोड़ों से ही नहीं गुफ्तगू कर सके ..........ऐसे में कैसे संभव है ' आखिर मैं चाहती / चाहता क्या हूँ ' की व्याख्या ?

एक घनघोर निराशा का समय नहीं तो और क्या है ये ? या फिर ये सोच में पड़े कीड़ों के कुलबुलाने का समय है जो जब तक मरेंगे नहीं , नए जन्मेंगे नहीं ? या फिर हरे कृष्ण करे राम जपने का वक्त है ये ? या फिर सब जिरहों से आँख मूँद खुद से संवाद करने का वक्त है ये ?

एक अकारण उपजी त्रासदी सी चुप के अंकुश से कुम्हलाई हुई है सारी बगिया फिर किसी एक फूल की फ़िक्र कौन करे ........

आओ के बतियाओ मुझसे
आओ के रो लो कुछ दुःख मुझसे
आओ के गुनगुना दो कुछ मुखड़े अपने गीतों के
कि शायद खिल जाए अमलतास वक्त से पहले
कि रूठी हुई नानी दादी की कहानी सा मिल जाए कोई शख्स मुझसे
और मैं अपने चुप के कोठार पर जला दूं एक दीप
उमंगों का , तम्मनाओं का , संभावनाओं का

कि शायद गणगौर के गीतों सी उभर सके इक आभा मुझमे ...

शनिवार, 5 सितंबर 2015

आज तो बहुत बिजी होंगे तुम



आज तो बहुत बिजी होंगे तुम
चारों तरफ तुम ही तुम
तुम्हारी ही पूछ
नाक पर मक्खी भी नहीं बैठने दे रहे होंगे .....है न

खुश तो बहुत होंगे
अच्छा लगता है न
जब हर तरफ अपनी ही पूछ हो
कुछ ख़ास हों एक दिन के लिए

मगर कभी सोचा
वो कहाँ जाएँ , कहाँ पायें तुम्हें
जिनके सिर्फ तुम ही एक आधार थे
तुम थे तो धड़कन थी
तुम थे तो श्रृंगार था
तुम थे तो जीवन था
ये किस तपते रेगिस्तान में छोड़ गए हो
जहाँ दूर दूर तक प्यास के पंछी फडफडाते दिखते हैं
और प्यास द्रौपदी के चीर सी नित निरंतर बढती जाती है
मगर तुम्हें न कहीं पाती है

सोचा कभी
जिनका कोई आधार नहीं होता
उसके एकमात्र आधार तुम ही हो ......कहा था तुमने
और जब तुमने ही पाँव के नीचे से जमीन खिसका ली
बताओ तो जरा
कहाँ ठौर पायें वो गुजरिया
कैसे जन्मदिन मनाएं तुम्हारा सांवरिया
जब तुम ही सामने न हों ..........

और मैं हूँ ही कौन तुम्हारी
जो नज़र में तुम्हारी जगह बना पाती
और उम्र मेरी उसी में गुजर जाती

जाओ खुश रहो मोहन
मनाओ ठाठ से अपना जन्मदिन
हमारा क्या है
कल भी ठूंठ थे आज भी ठूंठ ही हैं
और फिर एक मेरे न होने से
कोई कमी न होगी तुम्हारी महफ़िल में

मेरी प्रीत ने तो अभी कच्चा स्नान किया था
फिर कैसे तुमने मुख मोड़ लिया ?
कभी सोचना इस पर भी फुर्सत में
आज तो बहुत बिजी होंगे तुम ...........सांवरे !!!

वैसे भी हर किसी का अपना दिन होता है
और आज तुम्हारा दिन है
वैसे कह सकते हो ........ हर दिन तुम्हारा ही तो है
फिर भी
आता है एक दिन तेरे चाहने वालों का भी
जिस दिन तू कटघरे में खड़ा होता है
और मुझे इंतज़ार है उसी दिन का ...........

जन्मदिन मुबारक हो श्याम ........

मंगलवार, 1 सितंबर 2015

प्रतिकार की चिता पर

सच और झूठ दो सिरे .......कभी इधर गिरे तो कभी उधर गिरे ........करने वाले पैरवी करते रहे....... चारों तरफ फैली भयावह मारकाट के इस वीभत्स समय में कशमकश के झूले पर पींग भरते रहे मगर आकलन के न हल निकले .........ये कैसा वक्त ने मांग में सिन्दूर भरा है हर तरफ सिर्फ लाल रंग ही बिखरा पड़ा है फिर वो चाहे किसी की तमन्नाओं का हो या किसी की इज्जत का या किसी के मान का या किसी को जड़मूल से ख़त्म कर देने का, या फिर झूठ के बुर्ज तैयार कर देने का.............वक्त की दुल्हन इतरा रही है ये देख देख कि सच का पेंडुलम हाशिये पर खड़ा है तो झूठ का अपनी दावेदारी में अग्रिम पंक्ति में खड़ा मुस्कुरा रहा है.........' चलो हवा में उड़ा दें धूप और बारिश को ये वक्त की साजिशें हैं वक्त को ही सुलटने दो.....तुम तो बस अपने गेसुओं को मोगरे से महकने दो' ........चलन है आज का तो साथ चलना ही पड़ेगा आखिर प्रतिकार की चिता पर कब तक सुलगे कोई ?