सच और झूठ दो सिरे .......कभी इधर गिरे तो कभी उधर गिरे ........करने वाले पैरवी करते रहे....... चारों तरफ फैली भयावह मारकाट के इस वीभत्स समय में कशमकश के झूले पर पींग भरते रहे मगर आकलन के न हल निकले .........ये कैसा वक्त ने मांग में सिन्दूर भरा है हर तरफ सिर्फ लाल रंग ही बिखरा पड़ा है फिर वो चाहे किसी की तमन्नाओं का हो या किसी की इज्जत का या किसी के मान का या किसी को जड़मूल से ख़त्म कर देने का, या फिर झूठ के बुर्ज तैयार कर देने का.............वक्त की दुल्हन इतरा रही है ये देख देख कि सच का पेंडुलम हाशिये पर खड़ा है तो झूठ का अपनी दावेदारी में अग्रिम पंक्ति में खड़ा मुस्कुरा रहा है.........' चलो हवा में उड़ा दें धूप और बारिश को ये वक्त की साजिशें हैं वक्त को ही सुलटने दो.....तुम तो बस अपने गेसुओं को मोगरे से महकने दो' ........चलन है आज का तो साथ चलना ही पड़ेगा आखिर प्रतिकार की चिता पर कब तक सुलगे कोई ?
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