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सोमवार, 30 मई 2016

समाधान तुम्हारे पास भी नहीं



कभी कभी लगता है
समाधान तो तुम्हारे पास भी नहीं है
जब नहीं कर पाते समाधान
दुनियावी नीतियों का
दुनिया के व्यवहार का
तो बुला लिया करते हो
अपने चाहने वाले को अपने पास
और दिखा देते हो
खुद को ज़माने की नज़र में पाक साफ़

तुम्हें चाहने वाले करोड़ों होंगे और हैं
लेकिन तुमने किसी को नहीं चाहा
यदि चाहा होता तो
मीरा
जिसने किया सर्वस्व अर्पण
जिसके तुम ही तुम थे सब कुछ
वो भी जब हुई हैरान परेशान
आई तुम्हारी शरण
लेकर पुकार
गिरधर ! अब नहीं सह पाती सांसारिक लांछन
बहुत दे चुकी परीक्षाएं
ये हैं मेरे इम्तिहान की अंतिम सीमाएं
तो क्या किया तुमने ?
बस उसे अपने आगोश में समा लिया
तो क्या वास्तव में
यही है तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान ?

न न मोहन , प्रेम को तो कभी कभी लगता है
तुम भी न जान पाए
गर जानते तो
कलंकित न होने देते प्रेम को
रुसवा न होने देते अपने प्रेमी को
करते कोई ऐसा उपाय
जो बनता उदाहरण ज़माने के लिए

जानते हो तुम्हें क्या करना चाहिए था
जो भी तुम्हारे प्रेमी हों
निस्वार्थ तुम्हें चाहते हों
जिनके तुम ही तुम सर्वस्व हों
उन्हें दुखों की आंच पर तो तुमने खूब माँजा
परीक्षाएं भी खूब लीं
यहाँ तक कि
अपनों से भी दुत्कार खूब खिलवायी
लेकिन
खुद में समाहित करने से पहले
उनके भावों को पुष्ट कर
देते उन्हें दुनिया का
हर सुख
हर वैभव
हर संतोष
अपनों का न केवल साथ
बल्कि प्यार सम्मान और विश्वास भी
दिखाते सबको
मुझे चाहने वाले को मैं न केवल देता हूँ सर्वस्व
बल्कि उनका योगक्षेम भी करता हूँ वहन
और इतने सुख वैभव में रहकर भी
न हो पाते जब वो तुमसे तुम्हारे प्रेम से विमुख
तब कहलाता
आग के दरिया को
मोम के घोड़े पर होकर सवार
किया है पार ........वो भी बिना पिघले ........इस बार तुमने


क्या फायदा ऐसे खुद में समाहित करने का
जहाँ वो दुनिया से दुखी मायूस हो
तुम्हारी शरण आया
तो तुमने भी दुःख की गागर में ही उसे डुबाया
जहाँ तुम मिलकर भी नहीं मिलते
इसी उहापोह में जीवन बिताया
न तुम मिले न दुनिया
बताओ तो जरा ओ कृष्ण
तुम्हें चाहकर उसने भला क्या पाया
सिवाय दुःख के
इधर भी दुःख उधर भी दुःख
फिर भी उसने तुम्हें चाहने का अपना वचन निभाया
मगर जानते हो
तुम हार गए मोहन इस खेल में

हाँ , ये तुम्हारी हार है
तुम्हारे भक्त की नहीं
ये परीक्षा भक्त की नहीं मोहन तुम्हारी थी और है
और हर युग में होती रहेगी
जब तक तुम नहीं सीखोगे
प्रेम का यथोचित उत्तर देना

मानती हूँ
नहीं आता तुम्हारा भक्त किसी चाह से तुम्हारे पास
हर दुनियावी चाह को छोड़ लेता है तुम्हारी शरण
तुमसे तुम्हें मांगने की चाह का भी किया है जिसने तर्पण
लेकिन क्या तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नहीं बनता ?
इसीलिए कहा
नहीं है तुम्हारे पास भी
दुनिया की कुटिलाई का कोई साहसपूर्ण जवाब
गर होता
तो न होते तुम्हारे भक्त यूं रुसवा ...

खुद में समा लेना अंतिम उपाय नहीं
नहीं है स्वीकार्य तुम्हारा ये कृत्य
कम से कम मुझे तो नहीं ...

और सुनो
मैं भक्त नहीं तुम्हारी
इसलिए मत होना मेरे लिए परेशान
बस कर सको तो कर लेना उनका ख्याल
जो सब कुछ छोड़कर आये तुम्हारे द्वार

जैसे
सिर्फ वंशी बजाना , रिझाना  और मनुहार करवाना ही अंतिम विकल्प नहीं
वैसे ही
मेरे प्रश्नों से बचना भी संभव नहीं
तब तक
जब तक नहीं देते तुम मुझे यथोचित उत्तर ....

शनिवार, 7 मई 2016

क्या है कोई हल

ये जानते हुए भी
कि
तुम ही हो मेरे
तर्क वितर्क
संकल्प विकल्प
आस्था अनास्था
फिर भी
आरोप प्रत्यारोप से नहीं कर पाती ख़ारिज तुम्हें

ऊँगली तुम पर ही उठा देती हैं मेरी चेतना
और तुम
प्रश्नचिन्ह का वो कटघरा बन जाते हो
जो किसी उत्तर का मोहताज नहीं

ये कैसा बनवास है मेरा और तुम्हारा
जहाँ न मिलन है न जुदाई
फिर भी मन और बुद्धि के धधकते लावे में छिपी है रुसवाई

क्या है कोई हल मेरे तुम्हारे इस झगडे का .......कहो तो ओ कृष्ण ?