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शनिवार, 26 जनवरी 2013

योगक्षेम वहाम्यहम तुमने ही तो कहा ना ………



जब आत्मज्ञान मिल जाये
उसमे और खुद में ना
कोई भेद नज़र आये 
बस तब साक्षी भाव से 
दृष्टा बन जाओ 
और देखो उसकी लीला 
हाथ पकडता है या छोडता 
पार उतारता है या डुबोता 
कर दिया अब सर्वस्व समर्पण 
फिर कैसा डर ……… 
योगक्षेम वहाम्यहम तुमने ही तो कहा ना ………
तो अब तुम जानो और तुम्हारा काम 
ना मेरी जीत इसमे ना हार
जो है प्रभु तुम्हारा ही तो है
जीव हूँ तो क्या 
घाटे का सौदा कैसे कर सकता हूँ 
आखिर तुम्हारा ही तो अंश हूँ 


अब देखें क्या होता है 

वो कौन सी नयी लीला रचता है

घट - घट वासी 

कब घट को समाहित करता है 

जहाँ ना घट हो ना तट हो
 
बस एक आनन्द का स्वर हो



बस उसी का इंतज़ार है 


जहाँ दूरियाँ मिट जायें 

इक दूजे मे समा जायें 

भेद दृष्टि समता मे बदल जाये 

वो वो ना रहे 

मै मै ना रहूँ 

कोई आकार ना हो 

बस एक ब्रह्माकार हो 

आनन्दनाद हो

सब अन्तस का विलास हो

जब शब्द निशब्द जो जाये 


अखंड समाधि लग जाये 

आनन्द ही आनन्द समा जाये 

ज्योति ज्योतिपुंज मे समा जाये 

बस वो तेजोमय रूप बन जाये 

ये धारा ऐसी मुड जाये 

जो खुद राधा बन जाये 

तो कैसे न कृष्ण मिल जाये 

वो भी उतना खोजता है 

जितना जीव भटकता है 

वो भी उतना तरसता है 

ब्रह्म भी जीव मिलन को तडपता है

जब आह चरम को छू जाये 

वो भी मिलन को व्याकुल हो जाये 

तो कैसे धीरज धर पाये 

खुद दौडा दौडा चला आये

यूँ  मिलन को पूर्णत्व मिल जाये ………




देखें क्या होता है ? कब वो भी मिलन को तरसता है कब हमारे भाव उसे

 विचलित करते हैं………बस उस क्षण का इंतज़ार है।



रविवार, 20 जनवरी 2013

ये तो था परदे के सामने का सच ……………


दिशाहीन सडकें , दिशाहीन राहें और चलना उम्रभर का । एक सी दिनचर्या ………वो ही खाना , पीना और सोना …………कुछ नही हो करने को ………ऐसे मे माध्यम बना सोशल मीडिया । चल पडी वो उस डगर पर खुद को अभिव्यक्त करने ………शुरुआत लडखडाते कदमों से , संभल - संभल कर जैसे कोई बच्चा पहली बार खडे होकर आगे कदम रखने की कोशिश करता हो …………बार- बार गिरना, ठोकर खाना और संभलना बिल्कुल ज़िन्दगी की तरह …………और एक दिन दौडने लगी ………छपास के रोग से पीडित हो गयी ………आये दिन छपने लगी, सराही जाने लगी क्योंकि सोच तो समय से परे थी , क्योंकि ठाठें मार रहा था एक सागर उसके सीने में अभिव्यक्त होने को, क्योंकि सच कहती थी चाहे कडवा होता था, क्योंकि खुद उस पीडा से गुजरती थी , खौलती थी , खदकती थी तब कहीं दे पाती थी शक्ल किताब को , तब कहीं जाकर फ़ूँक पाती थी प्राण निर्जीव शब्दों में और यही उसके लेखन की सबसे बडी उपलब्धि थी जिसके कारण एक छोटी पहचान बना पायी थी  मगर फिर भी कुछ कमी सी थी जो अन्दर ही अन्दर खा रही थी वजूद को घुन की तरह …………शायद सोशल मीडिया माध्यम हो सकता है मगर मंज़िल नही ये समझ आ गया था और यहाँ भी तो जीवन एकतरफ़ा सा ही हो गया था उस मछली की तरह जिसे ज़ार मे डालो तो लगता है यही समुन्द्र है और बडे होने पर तालाब में डालो तो उसे लगता है यही सागर है मगर कुछ और बडा होने पर नदी मे डालो तो फिर उसी को सागर समझ बैठती है तब तक जब तक सागर मे नही उतरती है ………मगर वहाँ तक पहुँचने से पहले जरूरत है उसे उसके काबिल बनने की और यही वो घुन है जो उसकी छोटी- छोटी उपलब्धियों मे घुन बनकर बैठ गया है…………संतुष्ट नहीं है ………नहीं चाहियें उसे सिर्फ़ अपने सिर के ऊपर वाला आकाश, नही चाहिये उसे सिर्फ़ अपने घर के ऊपर वाला आकाश जो सीमित है उसकी निगाह की दूरी तक ………उसे तो चाहिए सारा आकाश जो असीमित है, अपरिमित है ………पह्चान की सीमा तक, उपलब्धि के आकाश तक ……


तब तक विद्रोह जारी है मेरे आकाश में …………मुझसे मेरा विद्रोह …………क्या पायेगा मुकाम………प्रश्नचिन्ह बन खडा है सम्मुख …………और मैं निरुत्तर हूँ …………भाग रही हूँ खुद से………और उपलब्धियों के आकाश का जगमगाता सितारा मैं नहीं ……मैं नहीं ………मैं नहीं ……

सोचते सोचते शुभ्रा हताशा के गहन अन्धकार मे डूब गयी………विलीन हो गयी सागर मे बूँद सी ………हमेशा हमेशा के लिये।

ये तो था परदे के सामने का सच ……………

मगर परदे के पीछे के सच को जानने के लिये खुद को बेपर्दा करना पडता है इसलिये वो नहीं कर पायी समझौता खुद से, आज की होड भरी दुनिया से, आज के दोगले चेहरों से, साहित्य के घटा जोड से, विवादों के दामन से, साहित्य के नाम पर फ़ैली दु्श्चरित्रता से, पैसे और पहुँच के दम पर सम्मान पाने के गुणा भाग से , खुद को प्रसिद्धि तक पहुँचाने के लिये अपनाये जाने वाले हथकंडों से फिर चाहे उसके लिये खुद की ही छीछालेदार क्योँ ना करवानी पडे या दूसरों एक चरित्र के बखिये ही क्यों ना उधेडने पडें या कुछ विवादास्पद ही क्यों ना लिखना पडे उन सी ग्रेड हीरोइनों की तरह जो जिस्म के बल पर पहचान बनाती हैं कुछ उसी तरह का लिखना नहीं लिख पायी , नही कर पायी समझौते उस आदिम सोच से जहाँ स्त्री होकर इतना कडवा सच उसने कैसे लिख दिया इसे उसे साबित करना पडे वो भी इस पुरुष सत्तात्मक साहित्यिक समाज में जिस पर सिर्फ़ उसका एकाधिकार है , कैसे उसकी कलम चल गयी बोल्ड विषयों पर और खोल दिये उसने सारे भेद जो बेशक पहले भी कहे गये हैं मगर हमेशा एक पुरुष द्वारा ही फिर चाहे कामसूत्र हो या उर्वशी या मेघदूत आखिर उसकी हिम्मत कैसे हुयी बोल्ड विषय पर लिखने की ……नहीं उतर पायी वस्त्रहीनता की आखिरी हद तक , नहीं अपना पायी ऐसे हथकंडे प्रसिद्धि के जंगल के ………क्योंकि
नही चुरा सकती थी वो सत्य से आँख
यदि चुरा लेती तो उम्र भर
नहीं मिला सकती थी खुद से आँख़

और इस तरह परदे के पीछे के भयावह सच के कारण एक उभरता सितारा हमेशा के लिये लुप्त हो गया और दे गया सूरज अपना ये आखिरी पैगाम अस्त होने से पहले ……

क्या किया ज़िन्दगी में
कुछ भी तो नहीं
क्या पाया ज़िन्दगी में
कुछ भी तो नहीं
क्या रही ज़िन्दगी की उपलब्धि
कुछ भी तो नहीं

ज़िन्दगी को जिया
बिना लक्ष्य
जो भी मिला
सब अनचाहा
खुद की चाहत क्या
पता नहीं या मिलती नहीं

अजीब उहापोह में भटकती है ज़िन्दगी
सिर्फ खाना , पीना और सोना
उससे इतर भी कुछ है
जिसकी हसरत में भटकती है ज़िन्दगी
मगर क्या ............यही नहीं जान पाते

अपनी पहचान क्या
कुछ भी तो नहीं
एक अदद पहचान के लिए
जूझती है ज़िन्दगी
मगर हर किसी को न मिलती है ज़िन्दगी

तलाश में हूँ ...............
भटकाव जारी है ..............
जाने किस पैमाने में जाकर छलकेगी ज़िन्दगी
तब तक
हाशिये पर खड़ी है ज़िन्दगी

पहचाने पाने को आतुर उपलब्धिहीन वजूद चिने हैं वक्त की सीमेंटिड दीवारों में …………

गुरुवार, 17 जनवरी 2013

ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम



मैं राख का अंतिम श्वास बन जाती .......जो तुम होते
मैं मुखाग्नि का अंतिम कर्म बन जाती .......जो तुम होते
मैं कच्चे घड़े संग चेनाब पार कर जाती .......जो तुम होते
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम 


जो तुम होते ........एक श्वास धरोहर बन जाती
जो तुम होते ........एक कर्म की मुक्ति हो जाती
जो तुम होते ........एक मोहब्बत परवान चढ़ जाती
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम


हो सकता ऐसा मुमकिन .........गर हम होते
ऋतु बसंत  भी मदमाती .........गर हम होते
एक दीपशिखा जल जाती ........गर हम होते
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम 


अश्रुबिंदु ना कभी ढलकाते ...........जो प्रियतम होते
विरह अगन ना कभी सताती ........जो प्रियतम होते
इश्क की ना दास्ताँ बन पाती ........जो प्रियतम होते
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम 


ना तुम होते ना हम होते ........ये सृष्टि किस पर मदमाती
ना तुम होते ना हम होते .......ये प्यास अधूरी रह जाती
ना तुम होते ना हम होते .......तो प्रेम में अपूर्णता रह जाती
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम 


अच्छा हुआ जो ना मिले कभी .........खोजत्व पूर्ण हो जाता
अच्छा हुआ जो ना मिले कभी .........निजत्व पूर्ण हो जाता
अच्छा हुआ जो ना मिले कभी .........शिवत्व पूर्ण हो जाता
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम


अधूरी प्यास, अधूरा तर्पण , अधूरा जीवन .........जरूरी था
जीवन की इकाइयों दहाइयों में अधूरापन ..........जरूरी था
प्रेम का अपूर्ण ज्ञान , अपूर्ण आधार .............जरूरी था
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम 


अपूर्णता में सम्पूर्णता का आधार ही तो 

व्याकुलता को पोषित करता है .......सत्य था , है , रहेगा
जन्म जन्म की प्यास का अधूरापन ही तो 

घूँट भरने को लालायित करता है .......सत्य था , है , रहेगा
मिलन पर विरह का स्वाद ही तो 

ह्रदय रुपी जिह्वा को आनंदित करता है...........सत्य था , है , रहेगा
ओह ! मेरे किसी जन्म के बिछड़े प्रियतम

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

हाय! कैसी है ये प्रेम के बाजूबंद की अठखेलियाँ…………


धडकनों के मौन आकाश पर
गुंजित तुम्हारा प्रेमराग
स्पन्दित कर नव चेतना भर गया
और शब्द झंकृत हो गये
भाव निर्झर बह गये
हाय! कैसी है ये प्रेम के बाजूबंद की अठखेलियाँ……………मोहन !

प्रीत की पौढी पर
अंकित तुम्हारे पाद पद्म
ह्रदयांगन अवलोकित कर गये
और तरंगें प्रवाहित हो गयीं
प्रीत अमरबेल सी सिरे चढ गयी
हाय! कैसी हैं ये मन मधुप की चिरौरियाँ ……………मोहन !


तुम्हारे प्रेम मे
नील वसना धरा बन
श्यामल चादर ओढ गयी
और देखो तो ज़रा अब
मैं भी श्यामल हो गयी
श्याम मन
श्याम तन
श्याम रंग
श्याम नयन
श्याम वसन
सुबह शाम सब श्याममय हो गये
हाय! कैसी हैं ये श्याम की श्यामल छवियाँ …………मोहन !

सोमवार, 7 जनवरी 2013

मेरी अँखियाँ हैं नीर भरी



मेरी अँखियाँ हैं नीर भरी
बिहारी जी अब क्या और अर्पण करूँ
मेरी अँखियाँ ......................

सुना है तुम हो दया के सागर
फिर क्यों रीती मेरी गागर
मेरी तो आस है तुम्ही से बंधी
बिहारी जी अब क्या और अर्पण करूँ
मेरी अँखियाँ .......................

दरस को अँखियाँ तरस गयी हैं
बिन बदरा के बरस रही हैं
और कैसे मैं तुम्हें प्रसन्न करूँ
बिहारी जी अब क्या और अर्पण करूँ
मेरी अँखियाँ.....................

सुना है तुम हो श्याम सलोना
मेरे मन में क्यूँ ना बनाया घरौंदा
अब कैसे मैं धीर धरूँ
बिहारी जी अब क्या और अर्पण करूँ
मेरी अँखियाँ ....................

जन्म जन्म की मैं हूँ प्यासी
तेरे चरनन की मैं हूँ दासी
मेरी बारी ही क्यों देर करी
बिहारी जी अब क्या और अर्पण करूँ
मेरी अँखियाँ हैं नीर भरी.............

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

है ना अचरज ...........



मेरे पास
कुरान की आयतें नहीं
जो बांच सकूँ
गीता का ज्ञान नहीं
जो बाँट सकूँ
शबरी के बेर नहीं
जो खिला सकूँ
मीरा का प्रेम नहीं
जो रिझा सकूँ
राधा सा समर्पण नहीं
जो अपना बना सकूँ
फिर भी तुम अपना बना लेते हो
है ना अचरज ...........मोहन !