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बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

पलाश पर शरद का अमृत

आजकल 
जाने क्यों मुँह फेरा हुआ है तुमने 
या फिर मुंह चुरा रहे हो 

मेरी समझ का मुहाना बहुत छोटा है 
और तुम्हारी कलाकारी का बेहद वृहद् 
हाँ, मानती हूँ 
कुछ मतभेद है हम में 
लेकिन सुनो 
कहा गया है न 
मतभेद बेशक हों लेकिन मनभेद नहीं होना चाहिए 
मगर तुमने तो 
मतभेद को मनभेद तक पहुँचा दिया 
अब कैसे पटेगी ये खाई ? 

मेरे पास नहीं कोई पुल 
जो जोड़ दे दोनों सिरे 
तुम्हें ही करना होगा कोई उपाय 
रबड़ को ज्यादा खींचना होता है नुकसानदेह 
जानते हो न 
क्यूंकि 
टूटने पर चाहे जितना कोई जोड़ ले 
एक लकीर रह ही जाती है 
एक दरार कभी नहीं भरती 
तो वो लम्हा आये 
उससे पहले जरूरी है 
साजो सामान के साथ तैयार होना 

सुनो 
कुछ तो चाहत बची होगी न 
मन के किसी कोने में 
कुछ तो अपनेपन के अहसासों से 
कभी तो भीगते होंगे 
जब यादों के वर्क लहराते होंगे 
कभी किसी नृत्य में 
देख ही लेते होंगे झलक 
अपनी ही मनमोहिनी रूप के 
तो तसव्वुर में 
एक झलक झिलमिलाती तो होगी 
याद की लम्बी सड़क पर 
तुम भी कभी तो दौड़ते होंगे 
पकड़ने मेरी पुकार की तितलियाँ 

तो फिर 
पहल तुम कर लोगे तो तुम्हें फर्क नहीं पड़ेगा 
मगर मेरी पहल का कोई मोल नहीं 
क्योंकि 
शुष्क मौसमों में नहीं खिला करते गुलमोहर 
और मैं हूँ पलाश का दहकता जंगल 
जिसमें सिवाय आग के कुछ नहीं 
और तुम हो 
उस पलाश पर शरद का अमृत 
जिसकी बरसती हर बूँद में 
मिट जाती है हर दाहकता 
तो फिर मान लूं मैं 
बुझाओगे सदियों से सुलगती दाहकता को 
कि 
मन मोगरे की वेणी बन गुँथ जाए तुम्हारे चरण कमलों में दिग दिगंत तक 
और तुम 
शरद के चाँद 
ठहर जाओ मेरे मन के आँगन में अनंत तक ....माधव