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शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

ये इश्क का चौथापन है

एक गुनगुनाहट सी हर पल थिरकती है साँसों संग
एक मुस्कराहट फिजाँ में करती है नर्तन
उधर से आती उमड़ती - घुमड़ती आवाज़
दीदार है मेरे महबूब का
अब और कौन सी इबादत करूँ या रब
किसे मानूँ खुदा और किससे करूँ शिकवा
वो है मैं हूँ
मैं हूँ वो है
मन के इकतारे पर बिखरी इक धुन है
'यार मेरा मैं यार की
अब कौन करे परवाह दरबार की'
 
कि
आओ ऊंची तान में पढो नमाज़
या बजाओ घंटे घड़ियाल
यार को चाहना और यार को पाना
हैं दो सूरतें अलग
और मैंने
यार रिझा लिया
बिना पाए बिना चाहे
कमली हो गयी बिना मोल की

 
कोई कमी नहीं
कोई चाहत नहीं
इश्क मुकम्मल हो गया मेरा
जानते हो क्यों
क्योंकि
ये इश्क का चौथापन है
जहाँ महबूब का होना और न होना मायने ही नहीं रखता

रूहानी प्रेम के दरिया में डूबी है रूह
जहाँ नहीं कोई मैं और तू
क्योंकि मोहब्बत का कोई गणित नहीं होता 
इसीलिए
दीदार मोहब्बत की मुकम्म्लता का प्रमाण नहीं यारा ........


शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता

मोर वचन चाहे पड़ जाए फीको
संत वचन पत्थर कर लीको 
 
तुमने ही कहा था न
तो आज तुम ही उस कसौटी के लिए
हो जाओ तैयार
बाँध लो कमरबंध
कर लो सुरक्षा के सभी अचूक उपाय
इस बार तुम्हें देनी है परीक्षा 
 
तो सुनो
मेरा समर्पण वो नहीं
जैसा तुम चाहते हो
यानि
भक्त का सब हर लूं
तब उसे अपने चरणों की छाँव दूँ
यानी मान अपमान , रिश्ते नाते, धन, सब
लेकिन तुम्हारी इस प्रवृत्ति की
मैं नहीं पुजारी 
 
और सुनो
मेरा प्रेम हो या व्यवहार
सब आदान प्रदान पर  ही निर्भर करता है
मुझे चाहिए हो तो पूरे
साक्षात् सामने
जो बतिया सके
मेरे प्रश्नों के उत्तर दे सके
साथ ही
खुद को पाने की कोई शर्त न रखे
कि
सब कुछ छोडो तो मिलोगे
सुनो
मैं नहीं छोडूंगी कुछ भी
और तुम्हारे संतों का ही कथन है
तुम कहते हो
जो मेरी तरफ एक कदम बढाता है
मैं उसकी तरफसाठ
तो यही है मेरा कदम प्रश्न रूप में 
 
अब बोलो
क्या उतर सकोगे इस कसौटी पर खरा
कर सकोगे उनके वचनों को प्रमाणित
क्योंकि
मज़ा तो तब है
जब गृहस्थ धर्म निभाते हुए बुद्ध हुआ जाए
तुमसे साक्षात्कार किया जाए
प्रेम का दोतरफा व्यवहार किया जाए
क्योंकि
गृहस्थ धर्म का निर्वाह ही मनुष्य धर्म है
जो तुमने ही बनाया है
और जो गृहस्थ धर्म से विमुख करे
वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता
जो सिर्फ खुद को चाहने के स्वार्थ से बंधा रहे
वो मेरा ईश्वर नहीं हो सकता

मेरा ईश्वर तो निस्वार्थी है
मेरा ईश्वर तो परमार्थी है
मेरा ईश्वर तो अनेकार्थी है

मेरे लिए तुम हो तो हो
नही हो तो नहीं
ये शर्तों में बंधा अस्तित्व स्वीकार्य नहीं मुझे तुम्हारा ... ओ मोहना !!!


सोमवार, 12 सितंबर 2016

मैं पथिक

मैं पथिक
*********
मैं पथिक किस राह की
ढूँढूँ पता गली गली
मैं विकल मुक्तामणि सी
फिरूँ यहाँ वहाँ मचली मचली

ये घनघोर मेघ गर्जन सुन कर
ह्रदय हुआ कम्पित कम्पित
ये कैसी अटूट प्रीत प्रीतम की
आह भी निकले सिसकी सिसकी

ओ श्यामल सौरभ श्याम बदन
तुम बिन फिरूँ भटकी भटकी
गह लो बांह मेरी अब मोहन
कि साँस भी आयेअटकी अटकी

तुम श्याम सुमन मैं मधुर गुंजन
तुम सुमन सुगंध मैं तेरा अनुगुंजन
ये सुमन सुगंध का नाता अविरल
कहो फिर क्यों है ये भेद बंधन

तुम बिन मन मयूर हुआ बावरा
कातर रूह फिरे छिटकी छिटकी
अब रूप राशि देखे बिन
चैन न पाए मेरी मन मटकी मटकी

मंगलवार, 6 सितंबर 2016

गोपिभाव ८

 
 
तेरी कस्तूरी से महकती थी मेरे मन की बगिया
और अब फासलों से गुजरती है जीवन की नदिया

ये इश्क के जनाजे हैं
और यार का करम है
जहाँ
प्यास के चश्मे प्यासे ही बहते हैं

तुम क्या जानो
विरह की पीर
और मोहब्बत का क्षीर

बस
माखन मिश्री और रास रंग तक ही
सीमित रही तुम्हारी दृष्टि ........मोहना 
 
 अब 
आकुलता और व्याकुलता के पट्टों पर 
रोज तड़पती है मेरे मन की मछरिया
और देख मेरी आशिकी की इन्तेहा
नैनों ने भीगना छोड़ दिया है 
 
अब 
किस पीर की मज़ार पर जलाऊँ 
अपनी मोहब्बत का दीया  
और हो जाए तर्पण
मिटटी से मिटटी के मिलने पर 

घूँघट पट है कि खुलता ही नहीं ...

गुरुवार, 25 अगस्त 2016

मन महोत्सव बने तो

 
 
मन महोत्सव बने तो
गाऊँ गुनगुनाऊँ
उन्हें रिझाऊँ
कमली बन जाऊँ

मगर
मन मधुबन उजड़ गया
उनका प्यार मुझसे बिछड़ गया

अब
किस ठौर जाऊँ
किस पानी से सींचूं
जो मन में फिर से
उनके प्रेम की बेल उगाऊँ

मन महोत्सव बने तो
सखी री
मैं भी श्याम गुन गाऊँ 
युगों की अविरल प्यास बुझाऊँ 
चरण कमल लग जाऊँ
मैं भी श्याम सी हो जाऊँ....

आज जन्मदिन है तुम्हारा


आज जन्मदिन है तुम्हारा
मना रहे हैं सब
अपने अपने ढंग से
जिसके पास जो है
कर रहा है तुम पर न्यौछावर

मगर
वो क्या करे
जिसके पास अपना आप भी न बचा हो
मेरे पास तो बचा ही नहीं कुछ
और जो तुमने दिया है
वो ही तो तुम्हें दे सकती हूँ
विरह की अग्नि से दग्ध
मेरा मन
स्वीकार सको तो स्वीकार लेना कान्हा

नहीं देखी होगी कभी तुमने कोई ऐसी गोपी
नहीं मिली होगी कभी
तोहफे में ऐसी सौगात
वो भी जन्मदिन पर ... है न

मेरे जैसी एक निर्मोही
जो बन रही है कुछ कुछ तुम सी ही
और तुम्हें लाड लड़वाने
माखन मिश्री खाने की आदत ठहरी
क्यूँ स्वीकारोगे मेरी वेदना की रक्तिम श्वांसें

आह ! कृष्ण ......... जाओ जीयो तुम
अपनी ज़िन्दगी
अपनी खुशियाँ
कि
ये पल है तुम्हारा , तुम्हारे चाहने वालों का
और मैं कौन ?

प्रेम की देग में दहकना है मेरी अंतिम नियति
कभी मिलोगे
इस आस पर नहीं गुजरती अब ज़िन्दगी ...

शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

पता तो होगा तुम्हें



मन का मरना
मानो निष्प्राण हो जाना
जानते तो हो ही

अब सावन बरसे या भादों
जो मर जाया करते हैं
कितना ही प्राण फूँको
हरे नहीं होते

जब से गए हो तुम
मन प्राण आत्मा रूह
कुछ भी नाम दे लो
रूठा साज सिंगार
वो देह का विदेह हो जाना
वो आत्मा के नर्तन पर
आनंद का पारावार न रहना
जाने किस सूखे की मार पड़ी
ठूंठ हो गयी हर कड़ी

सुना है आज हरियाली तीज है
और तुम झूलोगे हिंडोलों में
हो सके तो इतना करना
एक पींग हमारे नाम की भी भर लेना
शायद
आखिरी सांस सी एक हिचकी आ जाए
और
तुमने याद किया मुझे
अहसास हो जाए

बाकी
मन का क्या है
उसे तो तुमने बिरहा का गीत सुनाया है जब से
सुलग रहा है दावाग्नि सा
चलो सुना दूं तुम्हें एक हिंडोला मैं भी
'हिंडोले पर झूलें नंदलाल श्यामा जू के संग
सखी मेरी झोटे देत रहीं
वो तो रहते सुखधाम में
मुझसे ही बैरन ओट रही'
 
चलो खुश रहो 
हमारा मरना जीना तो चलता ही रहेगा 
एक मेरे न होने से 
तुम्हें फर्क भी क्या पड़ता है 

सिर्फ साँसों का चलना जीना नहीं होता ......पता तो होगा तुम्हें मोहन




बुधवार, 27 जुलाई 2016

अब मायने नहीं रखता



सब तहस नहस कर देना
नेस्तनाबूद कर देना
बर्बाद कर देना
देकर सब छीन लेना
कोई तुमसे सीखे

बर्दाश्त जो नहीं होता किसी का सुख
फिर वो लौकिक हो या पारलौकिक
कर ही देते हो सब ख़त्म

उस पर चाहते हो
सब तुम्हें चाहें
आखिर क्यों ?
तुम निर्मोही
तो कुछ निर्मोह का अंश हम में भी आना ही हुआ
तो क्या हुआ
जो अब तुम्हारी निर्मोहता का उत्तर निर्मोहता से हमने दिया
अपनी बारी कैसे खुद को बरी करते हो
जबकि
सभी घटनाओं , घटनाचक्रों के
आदि मध्य और अंत तुम ही होते हो

जब तुम छूट नहीं देते
तो हमसे क्यों उम्मीद रखते हो
मिटाना तुम्हारी आदत है
फिर वो कोई बात हो , जीवन या हस्ती
तो रहना तुम अपने कर्म में संलग्न

जानती हूँ
कर रहे हो पन्ने को धीमे धीमे कोरा
मिटाकर बिगाड़कर
तो फर्क नहीं पड़ता अब
जान जो गयी हूँ
तुम्हें और तुम्हारे व्यवहार को
इसलिए नहीं होती विकल अब आत्मा
नहीं गिरती उस पर
कोई परछाईं
कोई शब्द कोई भाव
जीना और मरना ही है बस सत्य
और तुम या तुम्हारा होना है
सिर्फ माया मोह , एक सब्जबाग , एक दृष्टिभ्रम
तभी मिटा दिया मुझमे से अजस्र बहता प्रेम का सोता भी

अब पुकार है न टंकार है कोई
स्पन्दन्हीन निश्चेष्ट निष्क्रियता ही बन चुकी है जीने का विकल्प
तुम्हारा होना या न होना अब मायने नहीं रखता


तुमसे मोहब्बत एक हास्य के सिवा कुछ भी तो नहीं ...

सोमवार, 30 मई 2016

समाधान तुम्हारे पास भी नहीं



कभी कभी लगता है
समाधान तो तुम्हारे पास भी नहीं है
जब नहीं कर पाते समाधान
दुनियावी नीतियों का
दुनिया के व्यवहार का
तो बुला लिया करते हो
अपने चाहने वाले को अपने पास
और दिखा देते हो
खुद को ज़माने की नज़र में पाक साफ़

तुम्हें चाहने वाले करोड़ों होंगे और हैं
लेकिन तुमने किसी को नहीं चाहा
यदि चाहा होता तो
मीरा
जिसने किया सर्वस्व अर्पण
जिसके तुम ही तुम थे सब कुछ
वो भी जब हुई हैरान परेशान
आई तुम्हारी शरण
लेकर पुकार
गिरधर ! अब नहीं सह पाती सांसारिक लांछन
बहुत दे चुकी परीक्षाएं
ये हैं मेरे इम्तिहान की अंतिम सीमाएं
तो क्या किया तुमने ?
बस उसे अपने आगोश में समा लिया
तो क्या वास्तव में
यही है तुम्हारे प्रेम का प्रतिदान ?

न न मोहन , प्रेम को तो कभी कभी लगता है
तुम भी न जान पाए
गर जानते तो
कलंकित न होने देते प्रेम को
रुसवा न होने देते अपने प्रेमी को
करते कोई ऐसा उपाय
जो बनता उदाहरण ज़माने के लिए

जानते हो तुम्हें क्या करना चाहिए था
जो भी तुम्हारे प्रेमी हों
निस्वार्थ तुम्हें चाहते हों
जिनके तुम ही तुम सर्वस्व हों
उन्हें दुखों की आंच पर तो तुमने खूब माँजा
परीक्षाएं भी खूब लीं
यहाँ तक कि
अपनों से भी दुत्कार खूब खिलवायी
लेकिन
खुद में समाहित करने से पहले
उनके भावों को पुष्ट कर
देते उन्हें दुनिया का
हर सुख
हर वैभव
हर संतोष
अपनों का न केवल साथ
बल्कि प्यार सम्मान और विश्वास भी
दिखाते सबको
मुझे चाहने वाले को मैं न केवल देता हूँ सर्वस्व
बल्कि उनका योगक्षेम भी करता हूँ वहन
और इतने सुख वैभव में रहकर भी
न हो पाते जब वो तुमसे तुम्हारे प्रेम से विमुख
तब कहलाता
आग के दरिया को
मोम के घोड़े पर होकर सवार
किया है पार ........वो भी बिना पिघले ........इस बार तुमने


क्या फायदा ऐसे खुद में समाहित करने का
जहाँ वो दुनिया से दुखी मायूस हो
तुम्हारी शरण आया
तो तुमने भी दुःख की गागर में ही उसे डुबाया
जहाँ तुम मिलकर भी नहीं मिलते
इसी उहापोह में जीवन बिताया
न तुम मिले न दुनिया
बताओ तो जरा ओ कृष्ण
तुम्हें चाहकर उसने भला क्या पाया
सिवाय दुःख के
इधर भी दुःख उधर भी दुःख
फिर भी उसने तुम्हें चाहने का अपना वचन निभाया
मगर जानते हो
तुम हार गए मोहन इस खेल में

हाँ , ये तुम्हारी हार है
तुम्हारे भक्त की नहीं
ये परीक्षा भक्त की नहीं मोहन तुम्हारी थी और है
और हर युग में होती रहेगी
जब तक तुम नहीं सीखोगे
प्रेम का यथोचित उत्तर देना

मानती हूँ
नहीं आता तुम्हारा भक्त किसी चाह से तुम्हारे पास
हर दुनियावी चाह को छोड़ लेता है तुम्हारी शरण
तुमसे तुम्हें मांगने की चाह का भी किया है जिसने तर्पण
लेकिन क्या तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नहीं बनता ?
इसीलिए कहा
नहीं है तुम्हारे पास भी
दुनिया की कुटिलाई का कोई साहसपूर्ण जवाब
गर होता
तो न होते तुम्हारे भक्त यूं रुसवा ...

खुद में समा लेना अंतिम उपाय नहीं
नहीं है स्वीकार्य तुम्हारा ये कृत्य
कम से कम मुझे तो नहीं ...

और सुनो
मैं भक्त नहीं तुम्हारी
इसलिए मत होना मेरे लिए परेशान
बस कर सको तो कर लेना उनका ख्याल
जो सब कुछ छोड़कर आये तुम्हारे द्वार

जैसे
सिर्फ वंशी बजाना , रिझाना  और मनुहार करवाना ही अंतिम विकल्प नहीं
वैसे ही
मेरे प्रश्नों से बचना भी संभव नहीं
तब तक
जब तक नहीं देते तुम मुझे यथोचित उत्तर ....

शनिवार, 7 मई 2016

क्या है कोई हल

ये जानते हुए भी
कि
तुम ही हो मेरे
तर्क वितर्क
संकल्प विकल्प
आस्था अनास्था
फिर भी
आरोप प्रत्यारोप से नहीं कर पाती ख़ारिज तुम्हें

ऊँगली तुम पर ही उठा देती हैं मेरी चेतना
और तुम
प्रश्नचिन्ह का वो कटघरा बन जाते हो
जो किसी उत्तर का मोहताज नहीं

ये कैसा बनवास है मेरा और तुम्हारा
जहाँ न मिलन है न जुदाई
फिर भी मन और बुद्धि के धधकते लावे में छिपी है रुसवाई

क्या है कोई हल मेरे तुम्हारे इस झगडे का .......कहो तो ओ कृष्ण ?


शनिवार, 30 अप्रैल 2016

आस्तिकता से नास्तिकता की ओर



आस्तिकता से नास्तिकता की ओर
प्रयाण शायद ऐसे ही होता है
जब कोई तुम्हें जानने की प्रक्रिया में होता है

और जानेगा मुझे ?
मानो पूछ रहे हो तुम
हाँ , शायद उसी का प्रतिदान है
जो तुम दे रहे हो

पहले भी कहा था
आज भी कहती हूँ
नहीं हो तुम किसी के माता पिता , सर्वस्व या स्वामी
क्योंकि
यदि होते  तो
कष्ट में न देख सकते थे अपने प्रिय को
कौन माता पिता चाहेगा
कि बच्चा तो मुझे बेइंतिहा चाहे
अपना सब कुछ मुझे ही माने
और मैं उसे कष्ट पर कष्ट देता रहूँ
वो एक वार झेले
तो दूसरा और तगड़ा करूँ
ये कैसा प्रपंच है तुम्हारा
जहाँ जब कोई अपना
सर्वस्व तुम्हें मान ले
तो उसे सर्वस्व मानने की ही सजा मिले
ऊपर से चाहो तुम
वो उसे तुम्हारी कृपा कहे
अरे वाह रे ठग !
तुझसे बड़ा जालिम तो शायद
पूरे ब्रह्माण्ड में कोई नहीं
जो भक्त या अपने बच्चों को कष्ट में देख न द्रवित हो 


हाँ , कहते हैं कुछ अंध अनुयायी
तुम भक्त को कष्ट में देख ज्यादा दुखी होते हो
क्या सच में ?
क्या कर सकते हो प्रमाणित ?
जबकि मज़े की बात ये है
तुम्हें न देखा न जाना
बस माना ... तुम्हारा होना
और उस पर वो कर देता है सब कुछ न्यौछावर
उसका प्रतिकार ये मिलता है
देखा फर्क उसमे और तुममें

दूसरी बात बताना ज़रा
कैसे पता चले इतना झेलकर
जब मृत्यु का मुख चूमे तो
उसकी सद्गति हुई या उसने तुम्हें प्राप्त किया या वो पूर्ण मुक्त हुआ
क्योंकि
किसे पता उसने फिर जन्म लिया या नहीं
कैसे करोगे सिद्ध ?
क्या कर सकते हो सिद्ध अपनी बात को
जो तुम कभी
गीता में कभी रामायण में तो कभी भागवत में कहते हो
या अपने शतुर्मुगों से कहलवाते हो
हमें तो लगता है
तुम कष्ट में देख ज्यादा खुश होते हो
ज्यादा सुखी होते हो
गोपियों से बड़ा उदाहरण क्या होगा भला ?
वो भी वैसे तुमने  ही कहा है
ताकि इस धोखे में हम प्राणी
भटकते रहें , उलझते रहें
मगर वास्तव में तुम्हारा होना भी
आज संशय की कगार पर है

चाहे तुम हो या नहीं
क्या फर्क पड़ता है
बस मानव को समझना होगा
तुम किसी के सगे नहीं
इसलिए जरूरी है
एक निश्चित दूरी तुमसे
कम से कम जी तो सकेगा
नहीं तो एक तरफ
संसार की आपाधापी से सुलगा रहेगा
तो दूसरी तरफ
यदि वहां से तुम्हारी तरफ मुड़ा
तो कौन सा चैन पायेगा
तुम कौन सा उसे चैन से जीने दोगे ?
तो फिर संसार ही क्या बुरा है
यदि उम्र भर
किसी न किसी अग्नि में जलना है तो ?

बस शायद यही है अंतिम विकल्प
खुद को एक बार फिर मोड़ने का
तुम्हारी आस्तिकता से अपनी नास्तिकता की ओर मुड़ने का

तुम वो हो
जो छीन लिया करते हो
अपने चाहने वालों की सबसे प्रिय वस्तु उससे
तो कैसे कहलाते हो
करुणामय , दयामय , भक्तवत्सल
क्या ऐसे होते हैं ?
तो नहीं चाहिए तुम्हारी
कृपालुता , दयालुता , भक्तवत्सलता
ये तुम्हारे गढ़े छलावे तुम्हें ही मुबारक

मैं थोड़ी अलग किस्म की हूँ
अब यदि हो हिम्मत
मेरी कही बातों अनुसार चलने की
फिर भी मेरे साथ रहने की
उम्र भर साथ देने की
अपना बनने और बनाने की
तभी बढ़ाना कदम
वर्ना तो
एक निश्चित दूरी तक ही है
अब तुम्हारा हमारा सम्बन्ध

सोचो ज़रा
वर्ना क्यों संसार बनाया था ?
और क्यों हमें भेजा
जब खुद को ही पुजवाना था
ये दो नावों की सवारी कम से कम मैं नहीं कर सकती
अब होना होगा तुम्हें ही
मेरी नाव पर सवार
थामनी होगी मेरी पतवार 

संसार और तुम्हारे प्रेम की धार पर
गर हो तैयार
तभी बसेगा प्रेम का संसार
वर्ना
एक निश्चित दूरी बनाना ही होगा
अब हमारे सम्बन्ध का आधार

देख लो
ये है पहला पग मेरा
आस्तिकता से नास्तिकता की ओर

क्या हो तैयार इस परिवर्तन के लिए ओ कृष्ण ?

गुरुवार, 21 अप्रैल 2016

जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगाँठ

जन्मदिन हो या वैवाहिक वर्षगाँठ , यदि भूल जाए कोई एक भी तो उसकी आफत .......लेकिन क्यों ? क्या ये सोचने का विषय नहीं ?

अब जन्मदिन तुम्हारा . तुम जन्मे उस दिन जरूरी थोड़े ही तुम्हारा पार्टनर भी उसे याद रखे और खुश होने का दिखावा करे . एक तो तुम पार्टनर की ज़िन्दगी में कम से कम २० से २५ साल बात आते हो और उससे उम्मीद करते हो वो तुम्हारा जन्मदिन याद रखे . क्या उसे और कोई काम नहीं . फिर क्या पता वो तुम्हारा जन्मदिन मनाने में खुश है भी या नहीं . आज व्यावहारिक होना ज्यादा जरूरी है बजाय भावनात्मक होने के . बेशक एक सम्बन्ध जुड़ता है पति पत्नी का लेकिन वहां यही अपेक्षाएं अक्सर बेवजह की कलह का कारण बन जाती हैं . 
 
ऐसा ही कुछ आज के युवा के साथ होता है जिस वजह से ज्यादातर रिलेशन बीच राह में ही टूट जाते हैं क्योंकि वो तो जुड़ते ही इस वजह से हैं कि पार्टनर हमारी हर इच्छा पूरी करेगा और जब वैसा नहीं होता तो ब्रेक अप . फिर दूसरे को पकड़ लेते हैं लेकिन कहीं ठौर नहीं पाते क्योंकि दिशाहीन होते हैं . सम्बन्ध कोई भी हो वहां यदि इस तरह की चाहतें होंगी तो संभव ही नहीं दूर तक जा सकें . 

इसी तरह वैवाहिक वर्षगाँठ की बात है . अब सोचिये जरा कोई बेचारा / बेचारी विवाह से खुश नहीं तो क्यों वो उस मनहूस दिन को याद रखेंगे ? उस पर पार्टनर की चाहत कि न सिर्फ याद रखा जाए बल्कि कोई महंगा गिफ्ट भी दिया जाए और बाहर डिनर भी किया जाए . सोचिये जरा बेमन से किया गया कार्य क्या ख़ुशी दे सकता है जिसमे एक खुश हो और दूसरा जबरदस्ती दूसरे की ख़ुशी में खुश होने का दिखावा भर कर रहा हो . जब सम्बन्ध ही मायने न रखता हो वहां दिखावे का क्या औचित्य ?

यदि इन बेवजह की औपचारिकताओं से सम्बन्ध को मुक्त रखा जाए तो आधी कलह तो जीवन से वैसे ही समाप्त हो जाए मगर हम भारतीय कुछ ज्यादा ही भावुक होते हैं और आधे से ज्यादा जीवन इसी भावुकता में व्यतीत कर देते हैं . बाद में कुछ भी हाथ नहीं लगता . यदि थोडा व्यावहारिक बनें और संबंधों को स्वयं पनपने दें , उन्हें थोडा उन्मुक्त आकाश दें तो स्वयमेव एक ऐसी जगह बना लेंगे जहाँ आपको कहना नहीं पड़ेगा बल्कि पार्टनर खुद स्वयं को समर्पित कर देगा .

मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

क्या हूँ मैं ऐसी ही स्वीकार ?




सुना है
गोपाला नंदलाला
तुम्हें लाड लड़ाना बहुत प्रिय है
लेकिन मैं
झूठा आडम्बर नहीं ओढ़ सकती
देखा देखी नहीं कर सकती

तर्क कुतर्क के बवंडर में घिर
जो अक्सर तुम्हारे कान उमेठ लिया करती है
तुम पर ही आरोप प्रत्यारोप किया करती है
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा कर दिया करती है
यहाँ तक कि
तुम्हारे अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया करती है

बोलो अब
क्या हूँ मैं ऐसी ही स्वीकार
रूखी खडूस सी
जिसमे प्रेम का लेश भी नहीं ???

मंगलवार, 12 अप्रैल 2016

सोच लो ?



जब दुःख पाना नियति है
चाहे तुम्हें की माने या नहीं
तो फिर क्यों
तुम्हें कोई भजे ?

जिसने जितना भजा
उतना ही दुःख पाया
और जिसने तुम्हारे
अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़ा किया
सुखपूर्वक जीवन बिताया
तो बताओ कृष्ण
तुम्हारे होने का क्या औचित्य ?

अब तुम्हें हम माने या नहीं
क्या फर्क पड़ता है
क्योकि
दुःख हमारी नियति है
खासतौर से उस भक्त की
जो सब कुछ अपना तुम्हें मानता हो
और तुम्हारे दिए ज्ञान को आत्मसात करता हो
वो मान लेता है तुम्हारे गीता ज्ञान को
कर्म का लेखा मिटे न मिटाए
मगर
किसने देखा अगला पिछला जन्म ?

और कभी कभी तो प्रश्न उठता है
तुम हो भी या नहीं
या फिर हो महज वहम
एक मन बहलाने का साधन भर
एक खुद को ढाँढस बंधाने का जरिया भर
क्यंकि
यदि होते तुम हमारे माता पिता
जैसे कि तुम्हारे सभी ग्रंथों में कहा गया है
तो क्या अमरे दुखो पर
तुम मौन रह सकते थे
क्या तुम्हारा अंतस न चिंघाड़ता
हम भी माता पिता हैं
बच्चों की सिसकारी पर
जान देने को हाजिर हो जाते हैं
और उनका दुःख खुद सहने को इच्छुक हो जाते हैं
लेकिन तुम ---- तुम पर कोई असर नहीं होता
सारे संसार में व्याप्त
अन्धकार , व्यभिचार , दुःख तकलीफ , अराजकता से
नहीं होते तुम व्यथित 

स्त्री पुरुष बच्चे या तुम्हारी बनायी सृष्टि का कोई जीव हो 
जब रोता है , तुम्हें पुकारता है ये सोच 
सारा संसार बेशक छोड़ दे
तुम साथ जरूर दोगे
लेकिन हो ही जाता है अंततः निराश
क्योंकि तुम नहीं उतर सकते अपने आसन से नीचे
वर्ना सुन पाते अबलाओं बच्चों की चीख पुकार

तो फिर कैसे माने तुम्हें
हम अपना सर्वस्व या माता पिता
इतनी हृदयहीनता कैसे समाई है तुम में .......बताना तो जरा ओ कृष्ण ?


तब लगता है
नहीं हो तुम कहीं भी
तुम हो सिर्फ हमारी बनायी
एक ऐसी कृति
जिसे हमने अपने जीवन का
एक सहारा बनाया
एक अस्तित्वहीन विग्रह

आस्तिकता और नास्तिकता के
मध्य की एक महीन रेखा
जिसे यदि अब और खींचा
तो शायद अस्तित्व ही नकार दिया जाए तुम्हारा
और उग आये नास्तिकता का घनेरा जंगल
जिसमे तुम बिलबिलाओ एक दिन
ये मेरा आग्रह है न इल्तिजा
बस मन की विडंबना है
तुम्हें स्वीकारूँ या नकारुं अब ... सोच लो
क्योंकि
अंध श्रद्धा , अंध भक्ति की बलि नहीं चढ़ सकती मेरी चेतना