अंतस में दबी चिंगारी
खुद की पहचान
ना कर पाने की
विडंबना
ह्रदय रसातल में दबे
भावपुन्ज
घटाटोप अँधेरे की चादर
बिखरा -बिखरा अस्तित्व
चेतनाशून्य मस्तिष्क
अवचेतन मन की
चेतना को खोजता
सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा
भावनाओं के सागर पर
रथारूढ़ हो
प्रकाशपुंज तक
पहुंचा नही जाता
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
खुद की पहचान
ना कर पाने की
विडंबना
ह्रदय रसातल में दबे
भावपुन्ज
घटाटोप अँधेरे की चादर
बिखरा -बिखरा अस्तित्व
चेतनाशून्य मस्तिष्क
अवचेतन मन की
चेतना को खोजता
सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा
भावनाओं के सागर पर
रथारूढ़ हो
प्रकाशपुंज तक
पहुंचा नही जाता
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
21 टिप्पणियां:
"सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा"
मानव सम्वेदनाओं की खूबसूरत अभिव्यक्ति प्रस्तुत की है आपने।
बधाई!
मैं ख़त्म कर के ही खुद को पाया जा सकता है .बहुत अच्छा लिखा है आपने ..शुक्रिया
अच्छी भावना .. पर आज सब अहम् की संतुष्टि में लगे हैं !!
दार्शनिकता और संवेदना का सुन्दर संतुलन . सुन्दर रचना .
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा.....
यही तो बिडम्बना है,
अच्छी रचना
"'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है"
बहुत ही अच्छी अभिव्यक्ति , शुभकामना !!
बहुत सुन्दर व गहरी रचना है...।बधाई।
आपकी इस रचना को पढ़ कर लगता है कि आप आध्यात्म की दिशा मे बढ़ रही हैं...शुभकामनाएं।
मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
अवचेतन मन की
चेतना को खोजता
सूक्ष्म शरीर
गम्भीर और सूक्ष्म रचना
बहुत सुन्दर
बहुत अच्छी रचना। बधाई।
मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है.....
बहुत छू लेने वाली पंक्तियों के साथ .....सुंदर रचना........
देरी से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.... दरअसल एक तो मेरी तबियत भी खराब थी और दूसरी कंप्यूटर की भी....इसलिए देरी हो गई......
मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है.....
बहुत छू लेने वाली पंक्तियों के साथ .....सुंदर रचना........
देरी से आने के लिए माफ़ी चाहता हूँ.... दरअसल एक तो मेरी तबियत भी खराब थी और दूसरी कंप्यूटर की भी....इसलिए देरी हो गई......
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है ..
सत्य कहा है ......... पर इतना आसान कहाँ है मैं को भुला पाना ........ आत्मा से परमात्मा तक पहुँचने की दूरी आसान नही है ......... सुंदर लिखा है ....
बहुत ही अच्छी बात कही...खुद को भुला कर ही खुद को पाया जा सकता है...सुन्दर अभिव्यक्ति
खुद को पाये बिना खुदा को भी नहीं पाया जा सकता बहुत अच्छी रचना है बधाई
'मैं' को भुलाकर ही
अस्तित्व को
समेटा जाता है
सब कुछ भुलाकर ही
खुद को पाया जाता है
सही कहा आपने।
लोहड़ी एवं मकर सकांति पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं।
बहुत ही सुंदर बात है, जिसे आपने बहुत ही सहजता से व्यक्त कर दिया है।
--------
अपना ब्लॉग सबसे बढ़िया, बाकी चूल्हे-भाड़ में।
ब्लॉगिंग की ताकत को Science Reporter ने भी स्वीकारा।
Bahut gahri baat kahi aapne.Shubkamnayen.
ये सच है कि जब तक हम खुद को नहीं भूलते, तब तक हम अपने आप को पहचान नहीं पाते हैं..आस्तित्व की पेशोपेश में जूझने के दर्द को बहुत ही सुदरता से पिरोया है आपने।
http://som-ras.blogspot.com ki or se badhai
वाह!!अभी आपकी प्यार वाली कविता से जो तनिक निराशा हुई थी यहाँ आकर काफूर हो गयी. बहुत ही अच्छा treatment . यह कविता है, अपने शिल्प कंटेंट सभी में बेहतर!
आभार कि आपने मेरे ब्लॉग का लिंक दिया!
"सूक्ष्म शरीर
कहो , कब , कैसे
पार पायेगा
मानव ! तू कैसे
खुद को जान पायेगा"
behatareen abhivyakti, vandana ji , ati uttam rachna.
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.......
एक टिप्पणी भेजें