जैसी क्रीडा मनमोहन
ग्वालों संग करते थे
हे राजन अब उसका वर्णन करता हूँ
जब ग्रीष्म ऋतु उठान पर होती है
ज्येष्ठ आषाढ़ केमास में
जीव दग्ध होते हैं
सारा संसार व्याकुल होता है
तब भी वृन्दावन में तो
वसंत ऋतु सा सुख बहता है
कहीं कोयल कूह कूह करती है
कहीं भँवरे पुष्पों पर
गुंजार करते हैं
कहीं मयूर नृत्य करते हैं
शीतल मंद सुगंध
पवन बहती है
यमुना जी भी हिलोरें लेती हैं
ऐसी आनंदमयी ऋतु छाती है
हर ओर हरियाली होती है
ऐसे सुहाने वन में
वृन्दावन बिहारी खेला करते हैं
अनेक राग गया करते हैं
विभिन्न वाद्य बजाय करते हैं
पशु पक्षियों की बोलियों में
आननद बरसाया करते हैं
कभी वंशी की धुन पर
धेनु चराया करते हैं
ऐसे ही एक दिन
कंस का भेजा राक्षस प्रलंब
ग्वाल रूप धारण कर आया था
और गोप ग्वालों में ही हिल मिल गया था
बल गोपा ना जान पाए
पर मोहन से कौन बच पाए
इशारों में बलराम जी को दिखलाया है
और नैनों में ही समझा दिया है
ग्वाल रूप रखकर आया है
ऐसे नहीं मार सकता
जब निजस्वरूप में आ जाए
तब ही वध करना होगा
इतना समझा उसे अपने पास बुलाया है
और हँसते हुए समझाया है
पर मेरे सखा
मुझसे कपट नहीं करते हैं
और जो कपट करें
उन्हें सखा नहीं मानता हूँ
फिर कान्हा ने
दो दल बना डाले
आधे ग्वालबाल प्रलंबासुर को
और आधे बलराम जी को दे
फल बुझौवल खेलने लगे
जब फल ना बूझेगा
वो दूसरे दल के ग्वाल बाल को
अपनी पीठ पर चढ़ा
माण्डीर वन तक जायेगा
जब कान्हा हार गए तब
श्यामसुंदर ने श्रीदामा को
पीठ पर चढ़ाया है
और प्रलंबासुर ने बलराम जी को
पीठ पर उठाया है
सारे ग्वाल इसी प्रकार
एक दूजे को उठा चलने लगे
मगर प्रलंबासुर ना रुका
वो बलराम जी को ले
आगे बढ़ चला
अब बलरामजी ने अपना भार बढाया है
जिससे प्रलंबासुर घबराया है
और निजस्वरूप में आया है
भार उठाने में अस्र्मार्थ
प्रलंबासुर गिर गया
बलराम जी ने उसके
सिर पर इक मुक्का मारा है
और वहीं उसका काम तमाम किया है
ग्वालबालों ने आनंद मनाया है
जब ग्वालबाल क्रीडा मग्न हुए
तब गैया चरती हुई दूर निकल गयीं
जब उनका पता ना किसी ने पाया
तब मनमोहन ने बंसी को बजा्या
जिसे सुन सुन गैया रंभाने लगीं
बड़े वेग से मोहन की तरफ आने लगीं
जैसे नदियाँ बड़े वेग से
सागर को जाती हों
उसी समय कंस का भेजा राक्षस
वन में आया था
अपनी माया से आंधी चलायी
घोर अँधियारा छा गया
तब वन में आग लगा डाली
जिससे ग्वाल बाल गायें जलने लगीं
और मनमोहन को पुकारने लगे
हे कृष्ण हे माधव हमें बचाओ
आपके सिवा ना दूजा कोई सहा्यी है
हर संकट में सिर्फ
तुमने ही जाना बचायी है
तब कान्हा बोल उठे
अपनी आंखें बंद करो
जब सबने आँख बंद कीं
तब अग्नि को प्रभु ने
मुख से पी लिया
इसका भी गुनीजनों ने
ये कारण दिया
जो भी प्रभु को प्रेम सहित
कुछ भी अर्पित करता है
वो उसका भोग लगाते हैं
जब अग्नि के मन में
ये लालसा आई तभी
उसने स्वयं ही मानो
मोहन के मुख में प्रवेश किया
या शायद प्रभु ने
अपनी त्रितापनाश स्वरुप का दर्शन दिया
विषाग्नि, मुन्जाग्नी, दावाग्नि
तीनों अग्नि उन्ही में समायी है
शायद यही बात बतलाई है
पहले रात्रि में अग्नि पान किया
अब दिन में
शायद ये दिखलाया है
भक्तों के लिए हमेशा
प्रभु तत्पर रहते हैं
रात और दिन नहीं देखते हैं
पर योगमाया के प्रताप से
ये भेद किसी ने ना जाना
संध्या समय सभी ने
प्रभु संग वृन्दावन में प्रवेश किया
कान्हा ने मनमोहिनी बंसी बजायी
जिसे सुन ब्रजबाला चली आयीं
कान्हा का दर्शन कर
नयनों को ठंडक पहुंचाई
और घर जा व्रत का पारण किया
गोपियों ने नियम बनाया था
सुबह से शाम तक
व्रत किया करती थीं
प्रभु दर्शन करके ही
संध्या को पारण करती थीं
यूँ ही नहीं मोहन मिले थे उन्हें
यूँ नहीं प्रेम का दूजा स्वरुप उन्हें कहा गया
जन्मों की तपस्या का फल था मोहन से मिलना
और अब भी योगिनियों सा जीवन जीती थीं
मोहन को ही सबकुछ समझती थीं
कान्हा की साँवली सुरतिया पर तो
गोपियाँ मोहित होती थीं
मोहन प्यारे को देखे बिना
अकुलाई सी फिरती थीं
पानी भरने दही बेचने के बहानों से
अपने प्यारे के दर्शन कर
ह्रदय तपन मिटाती थीं
मोहन प्यारे की मधुर चितवन
ही उन्हें सुहाती थी
क्रमश:………
12 टिप्पणियां:
राक्षस वध और गोपियों की अकुलाहट दोनों ही वर्णन लाजवाब---वृंदावन बिहारी की जय!
मनभावन
अभिनव लीला का अनुपम वर्णन..........बाँच कर मन प्रसन्न हुआ
बधाई
श्री कृष्ण लीला का अदभुत वर्णन...
ऋतु वणन बड़ा सजीव है।
रोचक वर्णन ... कृष्ण की महिमा अपरंपार
Aanand utha rahe hain aapke lekhanka!
आपकी इस उत्कृष्ठ प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार २२ /५/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी |
sundar prastuti !
उत्कृष्ट प्रस्तुती .......
सुन्दर शृंखला....
सादर.
Vaah! laajabab varnan kiya hai aapne,
padhkar bhaav bibhor ho gya hun.
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