प्रभु नित्य नयी लीला करते हैं
जन जन को मोहित करते हैं
इक दिन ग्वाल बालों की इच्छा पर
मोहन मुरली बजाने लगे
मुरली की धुन सुन
जड़ चेतन मोहित हो गए
यमुना का जल ठहर गया
पक्षी उड़ना भूल गए
गायों ने चरना छोड़ दिया
बछड़े दूध पीना भूल गए
मृगादिक चित्रलिखे से
खड़े रह गए
देवता भी स्त्रियों सहित
आकाश में आ गए
पुष्प वर्षा करने लगे
जड़ चेतन में ना कुछ भेद रहा
दिव्य गुंजार होने लगा
मुरली ने यूँ सम्मोहित किया
मनहर प्यारे ने सबका मन हर लिया
बंसी की धुन सुन
गोपियाँ सुध बुध भूल गयीं
प्रभु की मोहक छवि में डूब गयीं
जब ब्रजनाथ का दर्शन होगा
अब तो तभी आँखों को चैन मिलेगा
दूसरी गोपी बतियाने लगी
ना जाने कौन सा है गुण भरा
जो बंसी ने उनके ह्रदय पर राज किया
क्षण भर ना अलग ये होती है
अधरामृत को ही पीती है
तीसरी गोपी कहने लगी
इस बंसी ने बांस के तन से जन्म लिया
धूप , बारिश , ताप सहा
एक पाँव पर खडी रह
प्रभु का तप किया
फिर पोर पोर कटवाकर
आँच का ताप सहा
तब जाकर इसने सीधापन पाया
निश्छल निष्कपट ही प्रभु के मन को भाया
ऐसा तप ना किसी ने किया
तभी तो प्रभु ने इसका वरण किया
एक ब्रजबाला बोली
प्रभु मुझे बांस बना देता
फिर आठों याम मोहन के
अधरों से लगी रहती
नित्य अमृत चखा करती
इक बोली देखो तो ज़रा
कैसे प्रभु के अधरों पर
शोभा देती है
जिसके पोर पोर में
प्रभु अपना रस भर देते हैं
जिसे सुन मुर्दे भी जी उठते हैं
जिस वन में इसका बांस उगा
उसके जाति भाई भी खुश होते हैं
इसकी धुन सुन देवताओं की
स्त्रियाँ भी सुध बुध खो देती हैं
कब कमर से घुँघरू गिरते हैं
कब केश खुल जाते हैं
ज़रा सी सुध नहीं रहती
बस प्रभु मिलन की
आकांक्षा जगती है
इक बोली देवियों की तो बात ही क्या
जब मोहन मुरली में स्वर फूंकते हैं
गौएं अपने कर्ण दोने खड़े कर लेती हैं
मानो अमृत पान कर रही हों
नेत्रों से अश्रुपात होने लगता है
और बच्चों की दशा तो निराली होती है
गायों के थनों से दूध
स्वयमेव झरने लगता है
जब वो दुग्धपान करते करते
मधुर तान श्रवण करते हैं
तब मूँह में लिया घूँट
ना उगल पाते हैं
ना निगल पाते हैं
और आनंद विभोर हो जाते हैं
नयनों से सावन भादों
बरसने लगते हैं
कुछ ऐसे सुध बुध बिसरा देते हैं
एक सखी बोली ये
तो घर की वस्तु हैं
पक्षियों को तो देखो
वंशी की धुन सुन
निर्मिमेष दृष्टि से
योगी की तरह स्थिर
आसन हो जाता है
अपलक निहारा करते हैं
इक सखी बोली
चेतन का तो कहना क्या
जड़ नदियों को ज़रा निहारो
इनमे पड़ते भंवर
मोहन से मिलन की
तीव्र आकांक्षा को इंगित करते हैं
मानो तरंगों ने प्रभु के
चरण कमलों को पकड़ा हो
अपना ह्रदय निछावर किया हो
इक सखी बोली
ये तो फिर सब
वृन्दावन की वस्तु हैं
कैसे ना प्रभु पर रीझेंगी
पर उन बादलों को तो देखो
जब मोहन धूप में
गौएं चराते हैं
और बांसुरी बजाते हैं
तब इनमे प्रेम उमड़ आता है
और श्याम पर श्यामघन
मंडराने लगते हैं
श्वेत कुसुम सी बूँदें गिरने लगती हैं
मानो सर्वस्व प्रभु को
अर्पण कर रहे हों
निश्छल प्रेम को समर्पण कर रहे हों
इक सखी कहने लगी
वो भिलनियाँ भाग्यशाली हैं
जो प्रभु प्रेम में
विह्वल हुई जाती हैं
जब प्रभु घास पर चलते हैं
उस पर उन चरणों की
केसर लग जाती है
जिसे वो अपने ह्रदय और
मुख पर मल लेती हैं
कुछ विरह पीड़ा शांत कर लेती हैं
इक सखी कहने लगी
वो गिरिराज गोवर्धन का
भाग्य निराला है
प्राणवल्लभ के चरणों का
स्पर्श पाता है
और खूब इठलाता है
उस सा भाग्य ना कोई पाता है
इस वंशी ने तो
सबका मन लुभाया है
सखी बस हमें ही बिसराया है
मोहन की छवि ही समायी रहती है
आँखों की किवड़िया ना बंद होती है
इस जादूभरी वंशी का
जादू निराला है
वृन्दावन वासियों को जिसने
मोहित कर डाला है
इक दिन सुने बिना भी
जियरा चैन ना पाता है
सखी मोहन की वंशी की तान
में ही हमारा चैन मुकाम पाता है
ऐसे वंशी का गुणगान
नित्य किया करती हैं
ह्रदय तपन मिटाया करती हैं
यूँ सारा दिन गुजारा करती हैं
और संध्या समय गोधूलि वेला मे
प्रभु को निहार अपने नयनों को
शीतल किया करती हैं
हर पल बस मोहन की
लीलाएं निहारा करती हैं
क्रमश:…………
10 टिप्पणियां:
वाह री वंशी.
अदभुत लीला है श्याम की
आप तो श्याममय हो
श्याममय कर रहीं हैं.
जय वंशी वाले की.
जय हो वंदना जी की.
BAHUT BADHIYA CHITRAN...
वाह बहुत सुंदर वर्नन ...प्रभु की बंसी का ...
सुंदर चित्रण...बंसीधर की प्रिय बंसी से ईर्ष्या स्वभाविक है.
जय कृष्ण कन्हैया की.
कान्हा मुरली मधुर बजाये..
प्रभु की मोहक छवि और अमृत ही अमृत ...
बहुत सुन्दर भक्तिमयी प्रस्तुति!
इसी लिए तो गोपियों ने वंशी को अपनी सौतन माना है...
अब न कृष्ण हैं,न गोपियां। मगर बांसुरी की कशिश अब भी वही है!
श्री कृष्ण की बंसी का अदबुद्ध वर्णन करती रचना...आभार सहित शुभकामनायें।
एक टिप्पणी भेजें