इबारतों के बदलने का समय यूँ ही नहीं आता
एक जूनून से गुजरना पड़ता है इतिहासकारों को
और तुमने मुझे विषय सबसे दुरूह पकड़ा दिया
देखती हूँ
कर जाते हो कानों में सरगोशी सी और
मैं ढूंढती रहती हूँ उसके अर्थ
क्या कहा था
कहीं गलत तो नहीं सुन लिया
क्या चाहा तुमने
कभी कभी पता ही नहीं चलता
आज भी तुमने कुछ कहा था
तब से बेचैन हूँ
पकड़ना चाह रही हूँ सिरा
बात प्रेम की थी
तुम्हारे खेल की थी
कैसे भूलभुलैया में डाला है तुमने
मुझसे प्रेम करो
मगर मैं न तुम्हें चाहूँगा
और तुम करो निस्वार्थ प्रेम
वैसे सोचती हूँ कभी कभी
यदि निस्वार्थ प्रेम करना ही है
तो तुमसे ही क्यों
सुना है प्रेम प्रतिकार चाहता है
प्रेमी भी चाहत की परिणति चाहता है
अच्छा बताओ तो ज़रा
कैसा खेला रचाया है तुमने
बस मुझे खोजो
कोई चाहत न रखो
निस्वार्थ चाहो
अब मेरी मर्ज़ी
मैं मिलूँ या नही
दिखूं या नहीं
ये ज्यादती नहीं है क्या
कोई तुमसे करे तो ............
मगर तुमने प्रेम किया ही नहीं कभी
किया होता तो दर्द को जाना होता
और हम मूढ़ हैं न कितने
बिना तुझे देखे तेरे दीवाने हो गए
और अब तुम अपनी चलाते हो
अजब मनमानी है
तुम पर कोई है नहीं न
कान उमेठने के लिए
एक तरफ भुलावे में रखते हो
कर्त्तव्य को ऊंचा बताते हो
दूसरी तरफ कहते हो
मानव मात्र से प्रेम करो
और जब वो प्रेम करता है
तो उसे कहते हो
आपस में प्रेम नहीं
दिव्य प्रेम करो
अरे ये क्या है
है न तुम्हारी दोगली नीति
कैसे संभव हो सकता है ऐसा
जो संस्कार बचपन से पड़े हों
उनसे कैसे छूट सकता है इन्सान
जिसने सदा प्रेम का पाठ पढ़ा हो
कैसे इन्सान से विमुख हो सकता है
और सिर्फ तुम्हें चाह सकता है
जिसे कभी देखा नहीं
बस सुना है तुम्हारे बारे में
क्या प्रेम खिलवाड़ है तुम्हारे लिए
कि तुम्हें तो बिना देखे करे
और जिनके साथ
बचपन से लेकर एक उम्र तक
तक साथ निभाया हो
उन्हें भूल जाए उनसे प्रेम न करे
और उस पर कहते हो
अब सबसे मुख मोड़ लो
क्या इतना आसान हो सकता है
सब जानते हो तुम
बस हमें ही गोल - गोल
अपनी परिधि में घुमाते हो
लगता है तुमने ऐसा
अपनी सहूलियत के लिए किया है
तभी सामने नहीं आते
बस भरमाते हो
दिव्य प्रेम के नाम पर
क्योंकि सामने आने पर
प्रेम का उत्तर प्रेम से देने पर
घाटे का सौदा कर लोगे
और रात दिन सबकी
चाहतों को पूरा करने में ही लगे रहोगे
आम इन्सान की तरह
और तुम्हें आम इन्सान बनना पसंद नहीं है
तभी खास बने रहते हो
डरते हो तुम
और देखो हमें
कैसे दो नावों की सवारी कराते हो
सोचो ज़रा
दो नावों का सवार कब सागर के पार उतरा है
ये जानते हो तुम
इसलिए अपने मायाजाल में उलझा रखा है
और खुद तमाशा देखते हो
ओ उलझनों के शहंशाह
या तो बात कर
सामने आ
और प्रेम का अर्थ समझा
मगर यूँ कानों में
हवाओं में
सरगोशियाँ मत किया कर
नहीं समझ पाते हम
तेरी कूटनीतिक भाषा
अगर इंसानी प्रेम से ऊंचा तेरा प्रेम है
तो साबित कर
आ उतरकर फिर से धरती पर
और दे प्रेम का प्रतिकार प्रेम से
रहकर दिखा तू भी हमारी तरह
दाल रोटी के चक्कर में फंसकर
और फिर दे प्रेम का उत्तर प्रेम से
और करके दिखा निस्वार्थ प्रेम
गोपी सा प्रेम, राधा सा प्रेम, मीरा सा प्रेम
तब रखियो ये चाहत
कि प्रेम करो तो निस्वार्थ करो
या दिव्य प्रेम करो
कभी कभी तुम्हारी ये बातें कोरी भावुकता से भरी काल्पनिक लगती हैं
क्योंकि अगर होती सच्चाई तो देते जवाब जरूर ................
12 टिप्पणियां:
दिव्य प्रेम की खोज में मन बार बार उलझता है ....और इस उलझन को बहुत सुंदरता से लिखा है ...
alaukik prem kee adbhud kavita
kitna sundar likhtee ho!
रोचक रचना..
उथलपुथल की मनःस्थिति और भावों का सैलाब .... शब्दों में डूबना अच्छा लगता है
adhbhut abhivaykti....
कुछ सवाल बहुत सटीक हैं...शायद प्रभु के पास जवाब नहीं इसलिए मौन रहते हैं|
कान्हा से कितनी शिकायतें । मैया से करतीं तो उन्हे सजा तो मिलती ।
सुंदर प्रस्तुति ।
:-)))
एक बार फिर आपका सवाल और चैलेंज पढ़कर मज़ा आ गया...! आप भी खूब ही घेरती हैं... उनको ! उनको...जो कि हम सबमें हैं... फिर भी हमें नहीं मिलते.... ~ हम भी चलते चले जा रहे हैं.... शायद वही रास्ता भी दिखा रहे हैं...मिलेंगे किसी दिन अचानक से...मगर तब फिर बताने का मौका मिला...तो ज़रूर बताएँगे आपको.. :-))
~सादर!!!
@anita ji घेरना क्या है वो ही खुद घिर कर खुश होते हैं वरना हमारी कहाँ इतनी सामर्थ्य जो कुछ कह सकें ………बस यही तो उसकी नित्य लीला है जो अलग अलग रूपों मे हम सबके साथ खेलते रहते हैं।
prem karo to niswaarth karo...Unconditional love !
मन को उद्वेलित करते प्रश्नों को बहुत सुन्दरता से उकेरा है..लेकिन क्या करें हम सब मज़बूर हैं उसे प्रेम करने को, उसके अलावा आसरा भी कहाँ है?..
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