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बुधवार, 5 जून 2013

कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............




लोग पूछते हैं कैसे हो और मैं कह देती हूँ बढिया हूँ 
अब कैसे बताऊँ जी की दशा ,कौन समझेगा यहाँ 
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............

मुंडेर पर काक कोई आता नहीं 
पिया का संदेसा लाता नहीं
हिलोरें दिल में उठती नहीं 
बेचैनी किसी खंजर से कटती नहीं 
सखि , किसे कहूँ मैं मन की दशा 
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............

ग्रीष्म का ताप अखरता नहीं 
आंतरिक ताप भाप बन उड़ता नहीं 
यादों की लू भी लगती नहीं 
सांकल कोई बजती नहीं 
सखी , कैसे पाऊँ उनका पता 
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............


बांसुरी कोई बजती नहीं 
वेदना ह्रदय की मिटती नहीं 
विरह के बादल छंटते नहीं 
प्रीत के मनके पिरते नहीं 
सखी , माला मैं कैसे गूंथूं बता 
कौन आँगन मन पंछी ले उडा .............



7 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वेदना को स्वर देकर सचेत करने का आपका एक प्रयास अच्छा है।

Madan Mohan Saxena ने कहा…

लाजवाब कविता. धन्यवाद !!

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…


बहुत सुन्दर भाव ,सुन्दर प्रस्तुति
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प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मुखर होती वेदना..

कविता रावत ने कहा…

बहुत सुन्दर मुखरित विरह वेदना...... ...

सुरेन्द्र "मुल्हिद" ने कहा…

ek virah rachna maine bhee likhi hai....aapke jaisee to nahee lekin aapko pasand aayegee shaayad..

meri nayi post pe aapka swaagat hai: http://raaz-o-niyaaz.blogspot.com/2013/06/blog-post.html

Durga prasad mathur ने कहा…

आस,उलाहना,विरह और प्रेम का सुन्दर संगम , अति सुन्दर । डी पी माथुर