निर्मम छाया जीवन
एकांत अंधकूप जीवन
राहु केतु का ग्रास बना
मन का तोरण
हास परिहास उपहास का
पात्र बना ये जीवन
न काल से परे
न काल के साथ
निकला कोई औचित्य
होने न होने की सूक्तियों पर
न चला कोई वक्तव्य
तुम जहाँ थे
जहाँ हो
जहाँ रहोगे
भेद विभेद की परिसीमा में
प्रवेश क्रिया हुई वर्ज्य
बस खुद का क्षरण हुआ त्याज्य
तुम , मैं , वो
पहले और बाद में
कुछ नहीं है
कुछ नहीं है
कुछ नहीं है
बस अग्नि लील रही है जीवन
एक संग्राम का साक्षी भी अंततोगत्वा अदृश्य
फिर भोजन का स्वाद कौन व्यक्त करे !!!
4 टिप्पणियां:
बहुत गहन अभिव्यक्ति...
WAAH..... Behtreen Chintan
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (09-08-2014) को "अत्यल्प है यह आयु" (चर्चा मंच 1700) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, रक्षा बंधन की हार्दिक शुभकामनायें।
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