ओ कृष्ण
नहीं मालूम तुझसे
खुश हूँ नाराज या तटस्थ
बस कहीं न कहीं
अन्दर ही अन्दर हो गयी हूँ घायल मैं
और तुम जानते हो वजह
बेवजह कुछ नहीं होता
सुना था कभी
मगर वजह भी नहीं समझ आई
या तो मिलते ही नहीं
मिले तो बिछड़ते नहीं
ये आँख मिचौली खेलने को
तुमने मुझे ही क्यूँ चुना
कभी समझ न पायी मैं
तुम्हारे होने और न होने के चक्रव्यूह में घिरी मैं
तुम्हें ही कटघरे में खड़ा करती हूँ
सुना है
तुम्हारे पास हर प्रश्न का उत्तर होता है
तो देना जवाब यदि हो सके तो
क्योंकि
इस बार बात तुम्हारे अस्तित्व की है
और मेरे द्वारा तुम्हें
स्वीकारने और अस्वीकारने की
कोरे भ्रम भर तो नहीं हो न तुम ?
होती होंगी तुम्हारी लीलाएं विलक्षण
मगर यहाँ जो प्रेम रस की बहती
अजस्र धारा सूख गयी है
और रेत रह रह शूल सी सीने में चुभ रही है
वहां मैं एक अंतहीन प्यास में तब्दील हो गयी हूँ
कैसे करोगे साबित और भरोगे रीता घट
और सुनो
तुम्हारे रूप के सिवा दूजा रूप कोई निगाह में चढ़ता नहीं अब
ऐसे में कैसे काजल की धार बन समाओगे फिर से नैनन में
और सुनो
ये तटस्थता आत्मबोध का पर्याय नहीं है
बंजर जमीन को उपजाऊँ बनाने हेतु क्या है कोई जवाब तुम्हारे पास ?
2 टिप्पणियां:
khoobsurat kavita
सुन्दर रचना बधाई !
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