लगता होगा कुम्भ
हर बारह बरस में
मगर
मेरे मौन का कुम्भ तो
महीनों दिनों और पलों में
होकर विभक्त
अक्सर टोहता रहता है मुझे
और मैं
अपनी शिथिल इन्द्रियों
शिथिल साँसों संग
लगा लेती हूँ डुबकी
अनंत में
अनंत होकर
बस यही तो है मेरा विस्तार और शून्य
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