ये जानते हुए भी
कि
तुम ही हो मेरे
तर्क वितर्क
संकल्प विकल्प
आस्था अनास्था
फिर भी
आरोप प्रत्यारोप से नहीं कर पाती ख़ारिज तुम्हें
ऊँगली तुम पर ही उठा देती हैं मेरी चेतना
और तुम
प्रश्नचिन्ह का वो कटघरा बन जाते हो
जो किसी उत्तर का मोहताज नहीं
ये कैसा बनवास है मेरा और तुम्हारा
जहाँ न मिलन है न जुदाई
फिर भी मन और बुद्धि के धधकते लावे में छिपी है रुसवाई
क्या है कोई हल मेरे तुम्हारे इस झगडे का .......कहो तो ओ कृष्ण ?
4 टिप्पणियां:
बहुत खूब...
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-05-2016) को "सब कुछ उसी माँ का" (चर्चा अंक-2337) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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मातृदिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
एक ही हल है उसकी उंगलियो पर नाचते रहो।
न ही हल मिला हे
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