एक गुनगुनाहट सी हर पल थिरकती है साँसों संग
एक मुस्कराहट फिजाँ में करती है नर्तन
उधर से आती उमड़ती - घुमड़ती आवाज़
दीदार है मेरे महबूब का
अब और कौन सी इबादत करूँ या रब
किसे मानूँ खुदा और किससे करूँ शिकवा
वो है मैं हूँ
मैं हूँ वो है
मन के इकतारे पर बिखरी इक धुन है
'यार मेरा मैं यार की
अब कौन करे परवाह दरबार की'
कि
आओ ऊंची तान में पढो नमाज़
या बजाओ घंटे घड़ियाल
यार को चाहना और यार को पाना
हैं दो सूरतें अलग
और मैंने
यार रिझा लिया
बिना पाए बिना चाहे
कमली हो गयी बिना मोल की
कोई कमी नहीं
कोई चाहत नहीं
इश्क मुकम्मल हो गया मेरा
जानते हो क्यों
क्योंकि
ये इश्क का चौथापन है
जहाँ महबूब का होना और न होना मायने ही नहीं रखता
रूहानी प्रेम के दरिया में डूबी है रूह
जहाँ नहीं कोई मैं और तू
क्योंकि मोहब्बत का कोई गणित नहीं होता
इसीलिए
दीदार मोहब्बत की मुकम्म्लता का प्रमाण नहीं यारा ........
1 टिप्पणी:
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-10-2016) के चर्चा मंच "अर्जुन बिना धनुष तीर, राम नाम की शक्ति" {चर्चा अंक- 2504} पर भी होगी!
अहोई अष्टमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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