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शनिवार, 10 जुलाई 2010
विरह- वियोग
शरीर रुपी पिंजरे में मेरा आत्मा रुपी पंछी फ़डफ़डा रहा है श्याम .............संसार के बन्धनों में जकड़ी हुई हूँ .........हरी मिलन को तरस रही हूँ .............जल बिन मीन सी तड़प रही हूँ..............पाप गठरी उठाये भटक रही हूँ ........जन्मों के फेरे में पड़ी हुई हूँ.......... फिर भी कान्हा......... तेरे वियोग में ह्रदय फटता नहीं है ..........पत्थर ह्रदय है ये प्रेम की बूँद पड़ी ही नहीं इस पर, वरना पिघल ना गया होता प्रेम की एक बूँद से .............सुना है प्रेम तो पत्थर को भी पिघला देता है और मेरा ये कठोर ह्रदय तेरे प्रेम वियोग से फटता ही नहीं .............ज्ञान की आँख मेरे पास नहीं और कोई उपाय आता नहीं .............सोचती थी प्रेम होगा मगर नहीं है अगर होता तो तू मुझसे दूर कब होता ............मुलाकात ना हो जाती ...........अब कौन जतन करूँ सांवरिया ..........सिर्फ नैनन का नीर ही मेरी थाती है बस वो ही अर्पण कर सकती हूँ मगर ना मालूम कितने जन्म लगेंगे तुझसे मिलने को.........तुझे पाने को..................तुझे तो अपना बना लिया मगर तेरी कब बनूँगी तू मुझे कब अपना बनाएगा ,किस जन्म में ये विरह वियोग मिटाएगा कान्हा ............इसी आस पर दिन गुजार रही हूँ ..............क्यूँ इस देह के पिंजरे में फँसा रखा है कान्हा .........अब तो अपने आनंदालय की एक बूँद पिला दे श्याम .............बस एक बार अपना बना ले...........अब विरह वियोग सहा नहीं जाता.........तुझ बिन रहा नहीं जाता..........श्याम ,अब तो बस अपनी गोपी बना ले एक बार .............जन्मों की प्यास मिटा जा श्याम बस एक बार अपना बना जा श्याम ..........बस एक बार.
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13 टिप्पणियां:
ओह आज तो एकदम जैसे मीरा की आत्मा प्रवेश कर गयी है,कवियत्री में...
विरह में डूबी रचना...बहुत सुन्दर बन पड़ी है.
Oh..aapne to yah geet yaad dilaa diya.." maai ri...kaase kahun peer,apne jiyaaki.."
वंदना जी,आप तो ब्लागजगत की मीरा लगती हैं। वंदना नहीं वेदना लगती हैं। आपकी इस विरह वेदना को मेरा वंदन।
मुझे लगता है आपकी इस वेदना का निग्रह आपकी ही कविता में छुपा है-देखिए,
तुझे देखा
नहीं हुई
तुझे पाया
नहीं हुई
तुझे चाहा
नहीं हुई
मगर
जिस दिन
तुझे जाना
"मोहब्बत "
हो गयी।
..तुझ बिन रहा नहीं जाता..........श्याम ,
अब तो बस अपनी गोपी बना ले एक बार .............जन्मों की प्यास मिटा जा श्याम बस एक बार अपना बना जा श्याम ..........
बस एक बार.
--
घनश्याम को समर्पित,
समर्पण का यह भाव!
श्याममय हो गये
हमारे भी हाव-भाव!
--
बहुत ही प्रेरक रचना!
आज आत्मा जागी है - पुकार उठी है …
श्याम! एक बार तुम मिल जाते…
shubh chintan..
बहुत सुन्दर रचना !
बहुत तीव्र छटपटाहट श्याम से मिलने की.....सुन्दर अभिव्यक्ति
ओह !!!!!!!!!! ओह !!!!!!!!!!!!! ओह !!!!!!!!!!!!!!!
Beautifully written !
जय श्री कृष्णा
आप्की कविताओ ने मुझे भावविभोर कर दिया है
.
धन्यवाद आपको
jay shree krishnaa
बहुत ही सुन्दर और प्रेम से भरी पँक्तिया
आपना ब्लॉग , सफर आपका ब्लॉग ऍग्रीगेटर पर लगाकर अधिक लौगो ता पँहुचाऐ
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