ना जाने कैसा सवेरा है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है
किसने घेरा है
कौन पथिक है
कहाँ जाना है
क्या करना है
आगत विगत में उलझा है
मोह निशा में भटका है
मन ने मचाया हल्ला है
दिखता ना कोई अपना है
कभी लगता जहाँ अपना है
कभी लगता सब सपना है
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है
जीवन नैया डोली है
बीच भंवर में अटकी है
मल्लाह ना कोई मिलता है
पार ना कोई दीखता है
ये कैसा जीवन खेला है
जहाँ कोई ना तेरा मेरा है
जानता सब कुछ है फिर भी
पथिक भटकता फिरता है
राह विषम ये दिखती है
मंजिल भी तो नहीं मिलती है
किस आस के सहारे बढ़ता जाये
किसके सहारे जीता जाये
कोई ना संबल दिखता है
मन भूला भूला फिरता है
21 टिप्पणियां:
मन की कश्मकश को बहुत प्रवाह मयी शब्दों में पिरोया है ..सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति|| धन्यवाद|
जीव जंजालो पड़ गया नौ मन उलझा सूत
या सुलझे बाईक और या सुलझे अवधूत
मन को ठौर दिलाओ यूं ना भटकाओ..सुन्दर रचना
MAM BAHUT ACHI RACHNA HAI YE. . . VERY NICE. . .
JAI HIND JAI BHARAT
आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
कुछ चुने हुए खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .
वाह ... बहुत ही अच्छा लिखा है ..बेहतरीन प्रस्तुति ।
ye uljha man....man ke dwaar pe dastak deti kavita....or uske bhav
bahut khub....
भरी रात में टिमटिम कर भी राह दिखाते तारे हैं।
jeevan ek bhool bhulaiyaa hai,
yahan sabse bara rupaiyaa hai.
Vandana ji...jeevan ki aboojh paheli par aapki rachna adbhut hai.
बेहतरीन...पसंद आई रचना.
जाने क्या चाहे मन बावरा...........
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मुझे जूता लेना है !
मन-दुविधा की सहज सरल शब्दों में अभिव्यक्ति।
मन भटका है उलझन में उलझा है ।कोई अपना नहीं है संसार सपना है । नाव भंवर में फसी है मल्लाह है नहीं तूफान के आने का अंदेशा है। ""बाढ की सम्भावनायें सामने है और नदियों के किनारे घर बने है।"" मंजिल मिलती नहीं है जिसमें भ्रान्तियों ने और भ्रमित कर दिया है । कोई सम्बल भी नहीं है। बहुत अच्छी कविता है। सत्य है । मन भूला हुआ है और कुछ लोगों ने और भुला दिया है। ""वैसे ही चलना दूभर था अंधियारे में तुमने और घुमाव ला दिये गलियारे मे।"" सांसारिक और आध्यात्मिक रचना ।
सिर्फ संबल ही तो खोजना है...फिर मंजिल किसे खोजनी...भटकाव से मुक्ति...
उहापोह और कश्मकश
मन पर ऐसी अवस्था कभी आती है. आपने उसे दार्शनिक भावों में सुंदरता से पिरो कर लिखा है.
मन तो अति-चंचल होता ही है । यूँ ही भूला भूला फिरता है।
कैसी अबूझ पहेली है
जितनी सुलझाओ उलझी है ... वंदना जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ...
Sach! Ye man bhee kya cheez banayee hai qudtartne! Ek bhakaav hee bhatkaav hai!
Behad sundar rachana!
nice
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