प्रभु और भक्त की नोंक झोंक अब अगले मुकाम पर आ पहुँची ………
अगला प्रश्न भक्त ये करता है
क्रमश:……………
अगला प्रश्न भक्त ये करता है
प्रभु एक तरफ तुम ये कहते हो
तेरा योगक्षेम मैं वहन करूंगा
तू बस मेरा चिंतन कर
और जब भक्त ऐसा करता है
फिर भी तुम अपनी कलाबाजियों से
बाज नहीं आते हो
और बीच बीच में उसे
किसी ना किसी तरह सताते हो
बताओ भक्त कैसे निश्चिन्त हो
जब तुम ही उसे धोखा देते हो
और कठिन परीक्षा की आग में झोंक देते हो
बेचारा भक्त तो निश्चिन्त हो जाता है
अपना हर कर्म , हर सोच , हर विचार
सब तुम्हें ही अर्पण कर देता है
जहाँ वो अपना कुछ नहीं मानता है
फिर बताओ तो जरा
तुम कैसे ऐसे भक्त को
परीक्षा की उलझन में डाल देते हो
क्या तुम्हारा दिल नहीं पिघलता है
माना सुना है कि आँच की कसौटी पर
ही सोना कुंदन बनता है
मगर जिसे तुमने छू लिया हो
जो पारसमणि बन गया हो
उसे अब और क्या प्रमाणित करने को रहा
कहीं ऐसा तो नहीं
तुम्हें इस खेल में ज्यादा मज़ा आता है
और अपनी सत्ता का अहसास कराकर
तुम आनंदित होते हो
हाय रे मेरे प्यारे ! तू भी आज मुझे
अजब भक्त मिला है
जिसने मेरे सारे खेलों को खोला है
मैं यूँ ही नहीं ऐसे खेल रचता हूँ
पात्र देखकर ही उसमे जल भरता हूँ
ये सब अपने लिए नहीं करता हूँ
जब देखता हूँ मटका पक चुका है
तभी उसे जल में प्रवाहित करता हूँ
ताकि बाकी सब भी उसका अनुसरण करें
और जल्द से जल्द मुझसे आ मिलें
क्योंकि भक्त और मुझमे जब
कोई भेद नहीं रहता है
तो भक्त पीड़ा भी वहन नहीं करता है
वो सुख दुःख से परे हो जाता है
हर कृत्य में उसे मेरा खेल ही नज़र आता है
और वो भक्ति भाव से
उसकी पूर्णता में अपनी
भागीदारी निभाता है
मगर दोष ना कोई मढ़ता है
क्योंकि दो हों तो दोष मढे
खुद को कैसे कोई खुद ही आरोपित करे
जब भक्त ये जान लेता है
तभी तो परीक्षा पर खरा उतरता है
अब तुम्हारी बात ही मैं कहता हूँ
जब तुम ये कहते हो
मुझमे और जीव में कोई भेद नहीं
मैं ही हर रूप में समाया हूँ
सब मेरा ही लीला विलास है
ना कोई जीव है ना ब्रह्म
सब मेरा ही रूप मुझमे व्याप्त है
तो फिर प्रश्न कैसा और किससे?
बोलो प्यारे भोले भक्त
जब सब मैं हूँ
अपनी परछाईं से खेलता हूँ
तो कहो तो जरा
सुख में भी मेरा रूप समाया है
और दुःख में भी तो मेरा ही अंतस अकुलाया है
मैं ही मैं चारों तरफ छाया है
फिर तुम पर क्यूँ पड़ी
इन प्रश्नों की छाया है
तुम चाहे दो मानो चाहे एकोअहम
मगर भेद नहीं कर सकते हो
सुनकर भक्त का माथा झुक गया
वो प्रभु के चरणों में नतमस्तक हुआ
उसे समझ सब आ गया
इसे प्रश्नोत्तरी कहो या वार्तालाप या आरोप प्रत्यारोप
इसका भेद भी पा गया
ये पूछने वाला भी एक ब्रह्म है
और जवाब देने वाला भी
वो ही सर्वस्व है
बस अपने किस रूप को कैसे प्रस्तुत करना है
किस रूप से क्या काम लेना है
किसे कैसे खुद से मिलाना है
कैसे खुद में समाना है
ये सब प्रभु का ही आनंद विलास है
जहाँ कोई ना दूजा अस्तित्व प्रगट होता है
ये तो प्रभु की लीला का मात्र एक अंश होता है
खुद से खुद की प्रश्नोत्तरी
खुद से खुद के जवाब
खुद से खुद की पहचान
सब उनका है दृष्टि विलास
वास्तव में तो प्रभु ने अपनी सत्ता दर्शायी है
और अपने खेल में अपनी भागीदारी ही निभाई है
फिर कहाँ और कौन भक्त
कैसा समर्पण कैसा बँधन
सब उसी का उसी में आनंद समाया है
बस दृष्टि भेद से फर्क समझ नहीं आया है
अब भक्त की जय कहो या भगवान की
इसका प्रश्नकर्ता हो या उत्तरदाता
सब मे वो ही था समाया
बस माध्यम मुझे था बनाया
या कहो वो खुद ही इस रूप मे उतर आया
और एक नया पन्ना इस तरह लिखवाया
जिसे भिन्न रुपों मे वो गा चुका है
पर एक बार फिर से दोहराया
भूला बिसरा पाठ फिर से याद करवाया
प्रभु हैं अजब अजब है उनकी माया
जिसमे "मै" का ना कोई वजूद कहीं पायाक्रमश:……………
9 टिप्पणियां:
बढिया रचना
भगवान और भक्त का संबंध बड़ा ही रोचक होता है, पता नहीं वहाँ कौन किसको नियन्त्रित करता है।
दिल तो पसीजता है प्रभु का ,आँखें भी बहती हैं - गंगा यमुना सरस्वती उनसे ही भरी है
bahut acchi...prastuti.....bhagwaan aur bhakt ke beech ka ....
सादर अभिवादन!
--
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (27-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
'सब अँधियारा मिट गया ,दीपक देखा माँहिं !'
भ्रमों से पार पाना है बड़ा मुश्किल !
भक्त और भगवान एक दूजे के पूरक हैं।
भक्त और भगवान एक दूजे के पूरक हैं।
shandar--***
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