ए .....ले चलो
मुझे मधुशाला
देखो
कितनी प्यासी है मेरी रूहयुग युगांतर से
पपडाए चेहरे की दरारें
अपनी कहानी आप कर रही हैं
कहीं तुमने अपनी आँखों पर
भौतिकता का चश्मा
तो नहीं लगा लिया
जो आज तक तुम्हें
मेरी रूह की सिसकती
लाश का करुण क्रंदन
न सुनाई दिया
और मैं
युगों युगों से
जन्म जन्म से
अपनी रेत के
तपते रेगिस्तान में
मीन सी तड़प रही हूँ
प्यास पानी की होती
तो शायद
रेगिस्तान में भी
कोई चश्मा ढूंढ ही लेती
मगर तुम जानते हो
मेरी प्यास
उसका रूप उसका रंग
निराकार होते हुए भी
साकार हो जाती है
और सिर्फ यही इल्तिजा करती है
ए .........एक बार सिर्फ एक बार
प्रीत की मुरली बजाते
मेरी हसरतों को परवान चढाते
इस राधा की प्यास बुझा जाओ
हाँ ..........प्रियतम
एक बार तो दरस दिखा जाओ
बस .............और कुछ नहीं
कुछ नहीं चाहिए उसके बाद
तुम जानते हो अपनी इस नदी की प्यास को
फिर चाहे कायनात का आखिरी लम्हा ही क्यों न हो
बस तुम सामने हो ..........और सांस थम जाए
इससे ज्यादा जीने की चाह नहीं ...........
ए ...........एक बार जवाब दो ना
क्या होगी मेरी ये हसरत पूरी ........... रेगिस्तान की इस रेतीली नदी की
7 टिप्पणियां:
एक सागर चाहिये, जिसमें समा लूँ।
बेहतर लेखन !!
प्रभावित करती रचना .
Rooh shayad hamesha pyasee rahtee hai...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शुक्रवार (21-12-2012) के चर्चा मंच-११०० (कल हो न हो..) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
इतने तो निर्दयी बनों मत हे मेरे प्यारे घनश्याम
एक बार बरसो औ भर दो यह पलवल हे कृपा निधान
प्रार्थी - भोला-कृष्णा
बढ़िया प्रस्तुती
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