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सोमवार, 4 फ़रवरी 2013
भ्रम और सत्य के बीच स्थित तुम
भ्रम और सत्य के बीच स्थित तुम
कभी भ्रम बन टिमटिमाते हो
कभी सत्य बन अटल बन जाते हो
मोहन! अठखेलियों के लिये
इन पहेलियों को सुलझाने के लिये
और अपनी दिव्यता बताने के लिये
शायद ………तुमने
मुझे माध्यम बनाया है
वरना हूँ तो जीव ही ना
उलझ सकती हूँ
कभी भी, कहीं भी
तुम्हारी गूढ पहेलियों में……
तुम्हारा घडी- घडी में
अपनी छटायें बदलना
कभी प्रेम का जीवन्त रूप धर
अश्रु रूप में निरन्तर बहना
और दूसरे ही पल
अपने होने के प्रति
भ्रम पैदा करना
ओह ! मोहन!
ये कैसी पहेलियाँ हैं तुम्हारी
जितनी सुलझाओ उतनी उलझाते हो
और कभी एक पल में
सारी हकीकत दृश्यमान कर देते हो
मोहन ! अजब तुम्हारी माया है
अजब तुम्हारा रूप है
जिसमें जीव डूबता- उतराता रहता है
पर पार नहीं पाता
जब ॠषि, मुनि, योगी , ध्यानी
तुम्हारा पार नहीं पाते
समाधि में भी ना तुम नज़र आते
क्योंकि
कहीं तो नेक सी छाछ के लिये
गोपियों के आगे नृत्य करते हो
तो कहीं शिव को भी मोहिनी बन
अपने रूप के जाल में उलझाते हो
कहीं समस्त ब्रह्मांड के रचयिता बन
भृकुटि को टेढा करने पर ही
उथल - पु्थल मचाते हो
कहीं मैया से डरकर तुम
काल के भी जो महाकाल हो
यूँ दौडे जाते हो जैसे
तुम से ज्यादा भयभीत
सारे संसार में कोई नहीं
अजब खेल रचते हो मोहन
और यही खेल हमारे साथ करते हो
पल - पल मे चित्त की वृत्तियों में
तुम्हारे होने और ना होने के
अस्तित्व का भास होना और क्या है
तुम्हारी ही तो लीला है
वरना जीव की क्या सामर्थ्य जो
भ्रम मे डूब जाये तो बाहर आ जाये
या सत्य को पा ले और उसके बाद भ्रमित हो जाये
ये तुम्हारे होने और ना होने के बीच की स्थिति में झूलता जीव
उसका चित्त, उसकी बुद्धि और उसके अहंकार के
तुम ही संरक्षक हो ,
तुम ही पोषित करने वाले हो
और तुम ही निवारण करने वाले हो
फिर मध्यावस्था में क्यों अलोप होने का
विचलित करने का
व्यथित करने का
और जीव को भ्रमित करने का नाटक करते हो ………
हे नटवर !
माना तुम सबसे बडे जादूगर हो
फिर भी देखो मोहन
कहीं ऐसा ना करना
किसी भ्रमजाल में उलझा दो
और जीव को फिर चौरासी का फ़ेरा लगवा दो
बहुत मुश्किल से , तुम्हारी कृपा से
इस जीव को सही रास्ता मिला है
और इसने अपना सब कुछ तुम्हें मान लिया है
इसलिये अपना हर कर्म
चाहे मन से हो, बुद्धि से या वचन से हो
वो चाहे किया जा चुका कर्म हो
या आगे होने वाला कर्म हो
सब तुम्हें ही समर्पित कर दिया है
अब इसके आगे तुम्हारा काम है
क्योंकि
जीव ने तो अबोध बालक का रूप धर लिया है अब
जिसे ना अपने अच्छे का पता ना बुरे का
सो मोहना ……… सुना है
तुम ही कहते हो
जो मुझे इस तरह समर्पित होता है
उसका योगक्षेम मैं खुद वहन करता हूँ
इस पर विश्वास तो होता है
मगर जब तुम्हारे कुछ भक्तों का
हश्र बुरा देखती हूँ तो डर लगता है
जब तुम अपने परम भक्तों को नहीं बख्शते
नारद हों या शिव या गोपियाँ या मैया
उनकी परीक्षा ले लेते हो
तो फिर मेरी क्या बिसात
इसलिये गिरधारी कभी कभी
एक डर रूप में भी तुम अवतरित होते हो
कहीं हाथ ना छुडा लो
गर तुमने ठुकरा दिया
फिर कहीं की ना रहेगी ये जोगन तुम्हारी
माधव ! अब राखो लाज हमारी
कभी - कभी लगता है
किसी को ज्यादा जानना भी दुष्कर होता है
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14 टिप्पणियां:
बात न भ्रम की
न सत्य की
तुम आर देखो पार देखो,मध्य देखो
मैं हूँ - तुम प्रश्न में पाओ
समाधान में पाओ - मैं हूँ
कृष्ण के एक नहीं कई रूप माने गए हैं, और सभी रूपों में उनकी महत्ता स्थापित होती है. कृष्ण को जितना समझो जितना जानो लगता कि पूर्णतः नहीं समझे. सम्पूर्ण संसार के रचयिता हैं, फिर ऐसी दुनिया क्यों? बहुत से सवाल, जवाब खुद में ही तलाशना होगा. बहुत सार्थक रचना, शुभकामनाएँ.
भक्ति की सुन्दर गवेषणा प्रस्तुत की है आपने!
लीलाधारी तभी तो कहा गया है उन्हें..
कृष्ण मुरारी पर श्रद्धा बनी रहे
सुन्दर भक्ति भाव से भरी रचना
सादर !
मन की भाव हो या भावना हो,है क्या कोई बाह्य रूप
जानू मैं कैसे तुम्हे ,जब देखा नहीं कोई रंग रूप.
New post बिल पास हो गया
New postअनुभूति : चाल,चलन,चरित्र
क्रन्तिकारी कबिता पर अध्यात्मिक---
धन्यवाद.
मोहना की मधुर मुरली ध्वनि और योगेश्वर की "गीता" का समग्र ज्ञान इस नन्ही सी गगरी में उड़ेल दिया है आपने ! अति सुंदर रचना ! जोगन क्यूँ चिंता कर रही है ? नटराज की कृपा के बिना जोगन का इकतारा कभी मुखर नहीं हो सकता था ! उसकी तरफ से हम नत मस्तक हो उसके इष्ट मोहना को धन्यवाद देंगे और प्रार्थना करेंगे कि "वह" ऐसा सौभाग्य सब को दे ! हमारा आशीर्वाद स्वीकारिये !
कृष्ण को समर्पित सुंदर भाव-सुमन
सुन्दरतम,भावात्मक प्रस्तुती,मुरलीधर की कृपा बनी रहे।
सत्य और भ्रम की भूल भुलैया में भटकती बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति ! नटनागर की इन लीलाओं के रहस्य जिस दिन खुल जायेंगे सब आसान न हो जाएगा ? जो सहज सुलभ हो जाए हर बात तो उसका आकर्षण, उसका प्रभाव कम न हो जाएगा ! यही तो वे नहीं चाहते इसीलिये भ्रमित किये रहते हैं ! बहुत सुन्दर रचना !
---सही कहा जो सुलभ होता है उस पर कौन कसीदे गढ़ता-काढता है ...यही तो लीलाधारी की लीला है.... सुन्दर अभिव्यक्ति ..
--- हाँ कविता अत्यंत लम्बी होने से वही तथ्य व भाव पुनः पुनः वर्णित होते हैं .... इससे कविता में दोष आजाता है...
liladhari ke saty swarup ko jitna samjhne ki koshish karenge utna hi usme dubte jaayenge ............sundar bhav vandana ji
मोहन तो सबको नाच नचाते हैं ... कहाँ संभव होता है उनका रहस्य जान पाएँ ।
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