आँख में पड़ी किरकिरी सा रडकता तुम्हारा वजूद
देखो तो कभी मोती बन ही नहीं पाया
जानते हो क्यों .............
क्योंकि
मैने सहेजा था सिर्फ़ प्रेम को और तुमने अपने अहम को
सिर्फ मन रुपी माखन चुराना
या प्रीत के नयन बाण चलाना ही काफी नहीं होता
प्रीत निभाने के भी कुछ दस्तूर हुआ करते हैं ........मोहन !
अगर तुम हो तो ........
8 टिप्पणियां:
कान्हा के मन की समझ पाना सदा ही कठिन रहा है।
कान्हा के दस्तूर कान्हा ही समझ सकता है, हम सब तो कठपुतलियाँ हैं उसके हाथ की...
ज़माने के दस्तूर निभाने कितने मुश्किल होते हैं,निभाने वाला ही जानता है मनोभावों को उकेरती अच्छी रचना.
ज़माने के दस्तूर निभाने कितने मुश्किल होते हैं,निभाने वाला ही जानता है मनोभावों को उकेरती अच्छी रचना.
कान्हा आँख की किरकिरी बन कर भी शामिल हैं तुम में :):)
prem ko samajh pana bhi kahan aasan hota hai ...ati sundar ....
kanha aik jgh khantikta hai?
बहुत सुंदर भाव.....
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