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रविवार, 5 मई 2013

यूं ठगे जाने का शौक यहाँ भी तारी नहीं


जो नहीं अपना बनाना 
जो नहीं मिलने आना 
जो नहीं दरस दिखाना 
फिर नहीं हमारा तुम्हारा 
निभाव मोहन ! 
यूं ठगे जाने का शौक 
यहाँ भी तारी नहीं 

मन के बीहड़ों में जाऊं 
या कपडे रंगाऊं 
कहो तो मोहन 
कौन सा जोग धरूँ
जो तुम्हारे मन भाऊँ 
गर नहीं है बताना 
नहीं रास रचाना 
फिर नहीं हमारा तुम्हारा 
निभाव मोहन !

जो एक कदम तुम बढाओ 
तो दूजा मैं भी धराऊँ 
जो तुम नैन मिलाओ 
तो मैं भी मतवाली बन जाऊं 
जो तुम प्रेम का प्रतिउत्तर प्रेम से दो 
तो मैं भी प्रेममयी बन जाऊं 
गर नहीं है ऐसा कोई इरादा 
बस झूठा ही है सारा बहकाना 
और अधर में है लटकाना 
फिर नहीं हमारा तुम्हारा 
निभाव मोहन !

9 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

भावपूर्ण रचना।

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

भावप्रणव प्रस्तुति!
साझा करने के लिए आभार...!
--
शुभ रात्रि ....!

गिरधारी खंकरियाल ने कहा…

सम्मोहित करती रचना।

Satish Saxena ने कहा…

आपकी पोस्ट निराली रहती है .
बधाई वन्दना जी !

Udan Tashtari ने कहा…

उम्दा!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

आलोकिक प्रेम में रची बसी ... लाजवाव भावमय रचना ..

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

ओहो ...आपने तो मोहन को भी धमकी दे डाली :):) सुंदर प्रस्तुति

Durga prasad mathur ने कहा…

प्रेम के एक अनूठे प्रकार से सरोबार रचना

Shashi ने कहा…

so sweet .