जो खुद को चाहने को तेरा मन हुआ
तूने अनगिनत रूप बना लिया
प्रेम का संसार रचाया
फिर क्यों उसमे तूने
मन बुद्धि चित्त और अहंकार बसाया
तू खुद ही खुद को चाहता है
तभी तो स्वयं को चाहने को
इतने रूप बनाता है
हर चाहत का प्यासा तू
प्रेम के हर रस का भ्रमर सा पान करता है
फिर क्यों जीव के ह्रदय में
मन की बेड़ियाँ जकड़ता है
तू खुद ही जीव खुद ही ईश्वर
तू ही कर्ता तू ही नियंता
तुझसे पृथक न कोई अस्तित्व
फिर क्यों खेल खिलाता है
किसी को अपनी जोगन बनाता है
और गली गली नाच नचाता है
किसी सूर की ऊंगली पकड़
खाइयाँ पार कराता है
किसी तुलसी की कलम में
बेमोल बिक जाता है
तो किसी गोपी के ह्रदय में
विरहाग्नि जलाता है
ये नटवर नटखट तू
कैसे खेल रचाता है
तू ही तू है सब कुछ
तेरा ही नूर समाया है
फिर क्यों कर्मों के लेख की कड़ियाँ सुलझवाता है
क्यों दोज़ख की आग में झुलसवाता है
जबकि उस रूप में भी तो
तू ही दुःख पाता है
क्योंकि
आंसू हों या मुस्कान
जीव कहो या ब्रह्म
सबमे तू खुद को ही तो पाता है
फिर क्यों अजीबोगरीब खेल रचता है
एक अच्छे स्वादिष्ट बने व्यंजन में
क्यों कीड़े पड़वाता है
कैसा ये तेरा खेला है
खुद ही स्वामी खुद ही सेवक बन
प्रेम की पींगे बढाता है
पर पार ना कोई पाता है
कौन सी प्यास है तेरी जो बुझकर भी नहीं बुझती
जो इतने रूप धारण करने पर भी तू प्यासा ही रह जाता है
और फिर और प्रेम पाने की चाहत में
सृष्टि रचना किये जाता है
पर तेरी प्यास का घड़ा ना भर पाता है
श्याम ये कैसा तुम्हारा तुमसे ही नाता है
जो तुम्हें भी नाच नचाता है
पर ठहराव की जमीन ना दे पाता है
कहो ना
कितने प्यासे हो तुम ………. मोहन ?
क्रमश:
3 टिप्पणियां:
सुंदर रचना
नवरात्रि,दशहरा की शुभकामनाएँ
मोहन के रहस्यमय प्रेम के पक्ष को जागर करती .. भावपूर्ण रचना ...
सबकुछ अपनी ओर खींच ले जाता है..
एक टिप्पणी भेजें