जीव की प्यास तो चातक सी है
जो तुममें ही समाहित है
जो तुमसे ही उत्पन्न होती है
और तुम ही विलीन
तुमसे भिन्न वो कहाँ ?
आसान है ना कहना !
भटकाना !
भरमाना !
और जीव तुम्हारी चाहत में
युगों के फंदों में फँसा
अपनी करनी का फल मानता
सब स्वीकारता दंडवत नतमस्तक हुआ जाता है
और जान नहीं पाता
आखिर उसकी घुटन
उसकी बेचैनी
उसकी प्यास का
आदिम स्रोत क्या है ?
क्योंकि
जहाँ से उत्पत्ति होती है
वो जमीन ही उत्सर्जन में सहायक होती है
यदि उसका बीज ही थोथा होगा
तो क्या उगेगा
नहीं समझे ?
प्यारे ! देखो
जब सब जीव ,सृष्टि , ब्रहमांड तुम्हारे ही रूप हैं
तुम ही सबके आधार हो
और तुम ही एक खोज में भटक रहे हो
तुम भी अभी तृप्त नहीं हो
तो कहो कैसे
तुमसे उत्पन्न हम जीव तृप्त हो सकते हैं
जब आदि ही अतृप्त है
तो अंत कैसे पूर्णता पा सकता है
सुनो एक बार किसी से मन की कह दो
बता दो वो कौन सी खोज है
वो कौन सी चाह है
वो कौन सा माला की सुमिरनी का मोती है
जिसकी चाहत में
सृष्टि निर्माण और विध्वंस किया करते हो
क्योंकि यदि सिर्फ खुद से खुद को
चाहने की प्यास होती
तो इतने युगों से ना भटक रहे होते तुम
बताओ तो ज़रा
गोपियों से बढ़कर प्रेम किया किसी ने क्या
बेशक वो भी तुम ही थे खुद से खुद को चाहने वाले
माता यशोदा सा निस्वार्थ प्रेम
क्या किसी ने किसी को किया होगा
जब प्रेम की उच्चता , पराकाष्ठा भी
जहाँ नतमस्तक हो गयी हो
बताओ उसे और कुछ चाहने के लिए बचा होगा
नहीं ना !
लेकिन वहाँ भी तुम नहीं रुके
इसका क्या अर्थ निकालूँ ?
कोई तो ऐसी फाँस है
जो जितनी निकालते हो
उतनी ही तुम्हारे दिल में गडी जाती है
और तुम अपना चक्र चलाये जाते हो
मगर कहीं उसका जिक्र नहीं करते
किसी को आभास नहीं कराते
कि ……आखिर
कितने प्यासे हो तुम ………कहो ना !
4 टिप्पणियां:
खूब सूरत कविता ---गागर मे सागर जैसी------!
सागर चाहे, जल भर नदियाँ
मै निर्मोही प्रेम का प्यासा।
बिलकुल ही अलग तरह की। … आपको बहुत बहुत धन्यवाद। … वंदना जी
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