एक बंजारापन का आभास
खुद में खुद को खोने की ख्वाहिश
खुद से भी न मिलने की तमन्ना
यूं ही नहीं होती
भीड़ में अकेलापन
शोर में सन्नाटा
और भागम भाग भरी ज़िन्दगी में
रुक जाना
जैसे किसी अनादिकाल से चली आ रही
किसी परंपरा को मिटाना
या किसी युग को ही चित्रपट से गायब कर देना
या शायद होने और न होने के बीच में
जीवन बसर करने की चाह का होना
एक अपरंपरागत लेख सा ये जीवन
ढूंढ लाता है विसंगतियां
लीक पर चलते चलते
और कर देता है धराशायी
उम्र की तहजीबों को
वक्त के नालों में
जहाँ सड़ांध ही सड़ांध होती है
तब भागना चाहता है
बंजारेपन की ओर
खुद को भुलाने की ख्वाहिश में
क्योंकि
सामने का दृश्य चित्रपट सा होता है
सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा
जहाँ यथार्थ और सत्य सलीब पर लटके होते हैं
कराहते से , सहमते से , मिटते से
तब न ये दर न वो दर
कोई न अपना दीखता है
बंदिशों की बेड़ियों में जकड़े जूनून तो सिर्फ
सर ही पटकते दिखते हैं
छातियाँ पीटने की रवायतों का पालन करते
क्यूँ ............आखिर क्यूं
जीने के लिए अवतारी होना जरूरी है
क्यूँ नहीं कोई बेल बिना सहारे के सिरे चढ़ती है
क्यूँ नहीं हर गरजता बादल बरस पाता है
और इसी क्यूं की खोज में
विश्राम से पहले
ये सच नहीं जान पाता है
ना खुदा ही सच ............. ना तू ही सच .............ना ये दुनिया सच
बस बेबसियों की शाखों पर कंटीले तारों की लगी बाड से
रक्त रंजित होना और रिसना ही आखिरी पड़ाव है ...........अंतहीन यात्रा का
क्योंकि
डूबने से पहले और तैरने की ख्वाहिश में हाथ पैर तो मारने ही पड़ते हैं
जरूरी तो नहीं सबको रत्न मिलें ही या खुदा का दीदार हो ही
6 टिप्पणियां:
sundar v saarthak prayas .
विचार प्रवाह की तरह उतर जाती है रचना दिल में ... लाजवाब ..
बंजर एहसास
बंजर शब्द
खानाबदोश की तरह कहीं रुक कर खाने और सोने का जुगाड़ कर लेते हैं
सपनों का घर सपनों में बना लेते हैं
सुबह जब सूरज की रौशनी चेहरे पर पड़ती है
तब .... सत्य का एहसास होता है
वो भी बंजर .... यानि अनकहा
सुन्दर
बंजारापन ही हमें ज़िन्दगी के नये आयामों में प्रवेश करने कि चुनौती देता है...सुंदर रचना...
मन सदा ही घूमता रहता कहाँ?
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