1)
अब देखो
गोपियों ने कितना
तुम्हें चाहा
अपना माना
अपने आप को
मिटाया
पर तब भी
अन्त में तुमने
उन्हें क्या दिया
सिवाय और सिवाय
दर्द के
विरह के
यहाँ तक कि
आँख के आँसू भी
उनके सूख गये
सोचना ज़रा
द्रव्यता का हर
स्रोत सूख गया जिनका
उन्हें भी नहीं
तुमने बख्शा
यहाँ तक कि
यदि धडकनों के धडकने से भी
जिनका ध्यान च्युत
हो जाता था
तो वो उन्हें भी
रोकने को उद्यत हो जाती थीं
ऐसी परम स्नेहमयी
गोपियों की पीडा को भी
ना तुमने उचित मान दिया
एक बार गये तो
मुड्कर भी नहीं देखा
प्रेम का प्रतिकार तो
तुम क्या देते
कभी उन प्रेम प्यासी
मूर्तियों को ना
अपना दरस दिया
बस जोगन बना
वन वन भटकने को छोड दिया
ना मिलने आये
ना उन्हें बुलाया
फिर भी ना उन्होने
तुम्हें चाहना छोडा
प्रेम शब्द भी
जिनके आगे छोटा पडा
ऐसे प्रेम को भी तुमने
सिर्फ़ दर्द ही दर्द दिया
बस विरह की ज्वाला में
ही दग्ध किया
इससे बढकर और क्या
तुम्हारा दर्दीला स्वरूप होगा
2)
चलो ये छोडो
दूसरा चरित्र पकडो
सुदामा तुम्हारा परम मित्र
प्रशान्त आत्मा
जिसमें कोई चाहना नहीं
ईश्वर से भी कोई शिकायत नहीं
निसदिन अपने धर्म पर
अडिग रहने वाला
तुम्हारा भजन करने वाला
तुमसे भी कुछ ना चाहने वाला
भला ऐसा मित्र भी कोई होगा
क्योंकि
इस दुनिया में तो
स्वार्थ के वशीभूत ही सब
एक दूजे से प्रीती करते हैं
मगर तुमने भी
उसकी परीक्षा लेने में
कोई कसर ना छोडी
लोग तो एक दिन
व्रत ना रख पाते हैं
मगर उसके तो
कितने ही दिन
फ़ाकों पर गुजर जाते हैं
गरीबी की इससे
बढकर और क्या
इंतिहाँ होगी
कि एक साडी मे
उसकी बीवी भरी सर्दी में
गुजारा करती है
मगर दोनो दम्पत्ति
ना उफ़ करते हैं
फिर भी ना शिकायत करता है
फिर भी ना तुम्हें कुछ कहता है
ना तुमसे कोई आस रखता है
यहाँ तक कि
पत्नी , बच्चों की
भूख की पीडा से भी
ना विचलित होता है
ऐसे अनन्य भक्त
मित्र की कारुणिक दशा से
कैसे तुम अन्जान रहे
ज़िन्दगी भर उसे
दुख पीडा के
गहरे सागर में
डुबाते उतराते रहे
अगर उसने अपना
मित्र धर्म निभाया
और ना तुम्हें पुकारा
तो क्या तुम्हारा फ़र्ज़
नही बनता था
मगर तुम तो
यही कहते रहे
बस एक बार वो
मुझे पुकार ले
एक बार वो मेरे
पास आ जाये
तब मैं उसे
सर्वस्व दे दूँगा
अरे ये कौन सा
मोहन तुम्हारा
मित्र धर्म हुआ
क्योंकि
जब बुढापा उसका आया
तब कहीं जाकर
स्वंय के अस्तित्व को
बचाने के लिये
स्वंय को मित्र सिद्ध करने के लिये
तुमने कृपा का उदाहरण पेश किया
जब स्वंय को सिद्ध करने की
बात जहाँ आयी
वहीं तुमने स्वंय को प्रकट किया
क्योंकि लोग ये ना कह दें
हरि मित्र दुखी
ये कलंक कैसे सहूँगा
बस सिर्फ़ अपने पर कलंक ना लगे
स्वंय को बचाने हेतु
तुमने ये सब उपक्रम किया
वरना तो ता-उम्र
दुख, दर्द, विपत्ति देना
ही तुम्हारा परम कर्म हुआ
और इसी मे तुम्हें आनन्द मिला
कहो फिर कैसे ना कहूँ
तुम हो दुखस्वरूप
क्रमश: …………
6 टिप्पणियां:
दर्द होता न गर रिश्ते मेँ प्यार के
फिर कशिश दिलोँ मेँ आती कहाँ से
वाह प्रेम और समर्पण विरह और वेदना कुछ पाने और कुछ देने का इससे अच्छा वर्णन करना कठिन है।
वाह प्रेम और समर्पण विरह और वेदना कुछ पाने और कुछ देने की कोशिश मित्र भाव की सुंदर अभिव्यक्ति।
उलाहना देती रचना..
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 20-02-2014 को चर्चा मंच पर प्रस्तुत किया गया है
आभार
बहुत सुन्दर, पर कृष्ण का पक्ष नही विचारा गया है।
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