और तो और
देखो जरा
भरत की
निस्वार्थ प्रीती
कैसे प्रेम का स्वरूप
उन्होने पाया था
जिसे देख प्रेम भी
लजाया था
जिसने तुम्हारे लिये
सारा राज -पाठ
ठुकराया था
यहाँ तक कि
अपनी जननी को भी
ना अपनाया था
और उसे भी उसके
माँ होने के अधिकार के सुख
से वंचित किया
कैसा वो वियोगी बना
जिसके आगे
प्रेम का स्वरूप भी
छोटा पडा
नवधा भक्ति का
पूर्ण रूप जिसमे समाया
उसके प्रेम का भी
ना तुमने सत्कार किया
तुम तो फिर भी
अपनी पत्नी और भाई के साथ
वन मे रहे
और कन्द मूल फ़ल
खाते रहे
ॠषि मुनियों से मिलते रहे
मगर भरत ने तो
एकान्तवास किया
पत्नी परिवार का त्याग किया
मुनि वेश धारण कर
14 वर्ष जमीन मे
गड्ढा खोदकर
उसमे शयन किया
क्योंकि पृथ्वी पर तो
तुम सोते थे
और सेवक का धर्म
यही कहता है
स्वामी से नीचे
उठना बैठना और सोना
बस वो ही तो
उन्होने व्यवहार किया
खाने मे भी
उन्होने घोडों की लीद में
जो जौ के दाने मिलते थे
उन्हें धोकर सुखाकर
फिर उनका भोजन बनाते थे
और उसका सेवन करते थे
स्वामीभक्ति का ना
ऐसा कोई उदाहरण होगा
ऐसी प्रेम की जीवन्त मूर्ति
ना किसी ने देखी होगी
पर तुम्हें ना कोई असर हुआ
तुम तो अपने कर्तव्य पथ पर चलते रहे
भावनाओं प्रेम का ना
कोई मोल रहा
विरह जन्य दुख से
भरत का ह्रदय कातर हुआ
ज़िन्दगी भर सिर्फ़ और सिर्फ़
दुख ही दुख सहा
ये भी कोई प्रेम परीक्षा
लेने का ढंग हुआ
मगर तुम तो इसी मे
आनन्दित होते हो
फिर भाई हो या पत्नी
निष्कलंक सीता पर भी तो
तुमने आक्षेप लगा त्याग दिया
जिसने उम्र भर
पत्नीधर्म निभाया
दुख सुख मे साथ दिया
जो चाहती तो
महलों मे रह सुख
भोग सकती थी
क्योंकि वनवास तो
सिर्फ़ तुम्हें मिला था
मगर अपने प्रेम के कारण
उसने तुम्हारा साथ दिया
वन वन तुम्हारे साथ भटकी
यहाँ तक कि
अपह्रत भी हो गयी
फिर भी ना शिकायत की
वहाँ भी तुम्हारे नाम की रटना
वो लगाती रही
तब भी तुमने उसकी
अग्निपरीक्षा ली
चलो ये ली सो ली
मगर उसके बाद
किस दोष के कारण
तुमने उसका त्याग किया
महज स्वंय को ही
सिद्ध करने के लिये ना
स्वंय को ही प्रमाणित करने
के लिये ही ना
तुमने सीता का त्याग किया
ताकि तुम्हारा वैभव बना रहे
फिर चाहे तुम्हारे कर्म से
आने वाली कितनी ही
सीताओं की दुर्दशा बढे
मगर तुम पर ना कभी असर हुआ
आज घर घर में सीता दुत्कारी जाती है
तुम्हारी बिछायी नागफ़नियों पर
लहूलुहान की जाती है
तुमने तो सिर्फ़
अपना मनचाहा ही किया
फिर चाहे उससे
कोई कितना ही पीडित हुआ
कैंसर के दर्द से भी भयंकर
तुमने दर्द का टीका दिया
जिसे भी हर प्रेमी ने
खुशी खुशी संजो लिया
भला बताओ तो
कैसे कह सकते हो तुम
कि तुम सुखस्वरूप हो
जबकि तुम तो सदा
परपीडा में ही आनन्दित हुए
कहो मोहन अब कैसे कहूँ तुम्हें आनन्दघन
मेरे लिये तो
तुम सिर्फ़ और सिर्फ़ दर्द हो मोहन
क्रमश : ……………
2 टिप्पणियां:
bahut khoob ......
सार्थक प्रश्न उठाती बहुत प्रभावी और भावपूर्ण प्रस्तुति...
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