आस्था के जंगल में उगा
विश्वास का वटवृक्ष
जब धराशायी होता है
जाने कितने पंछी
बेघर हो जाते हैं
जाने कितने घोंसले टूट जाते हैं
जाने कितनी मर्यादाएं भँग हो जाती हैं
छितरा जाता है पत्ता पत्ता
और बिखर जाता है जंगल के कोने कोने में
कभी न जुड़ने के लिये
फिर कभी न शाख पर लगने के लिये
विश्वास के टूटते ही
धूमिल हो जाती हैं
सभी संभावनाएं भविष्य की
और आस्था बन कर रह जाती है
महज ढकोसला
जहाँ चढ़ते थे देवता पर
फूल दीप और नैवैद्य
वहीँ अब खुद की अंतश्चेतना
धिक्कारती है खुद को
झूठ और सच के पलड़े
लगते हैं महज
आस्था का बलात्कार करने के उपकरण
धर्मभीरु मानव मन
नहीं जान पाता सत्य के
कंटीले जंगलों का पता
जहाँ लहूलुहान हुये बिना
पहुंचना सम्भव नहीं
और दूसरी तरफ़
झूठ करता है अपनी
दूसरी परंपरा का आह्वान
तो सहज सुलभ हो जाती है आस्था
मानव मन का कोना
'चमत्कार को नमस्कार '
करने में विश्वास करने वाला
चढ़ जाता है आस्था की वेदी पर बलि
मगर नहीं कर पाता भेद
नहीं कर पाता पड़ताल
कैसे दीवार के उस तरफ़
कंक्रीट बिछी है
और उसकी आस्था ठगों के
हाथों की कठपुतली बनी है
वो तो बस महज एक वाक्य को
मान लेता है ब्रह्मवाक्य
क्योंकि ग्रंथों पुराणों मे वर्णित है
इसलिए धर्मभीरुता का लाभ उठा
हो जाता है शोषित कुछ ठगो की
जो बार बार यही समझाते हैं
यही बतलाते हैं
गुरु से बढ़कर कोई नही
दीक्षा गुरु सिर्फ़ एक ही है होता
प्रश्न यहीं है खड़ा होता
आखिर वो कहाँ जाये
किससे कहे अपने मन की व्यथा
जब दीक्षा गुरु ही
विश्वास के वृक्ष पर
अपनी हवस की कुल्हाड़ी से वार करे
अपनी कामनाओं की तलवार से प्रहार करे
पैसा पद और लालच के लिये
अपने अधिकारों का दुरूपयोग करे
तब कहाँ और किससे कोई शिकायत करे
कैसे उसे गुरु स्वीकार करे
जिसने उसकी आस्था के वृक्ष को
तहस नहस किया
कैसे उसके लिये मन में पहले सा
सम्मान रख प्रभु सुमिरन किया करे
क्या सम्भव है उसे गुरु स्वीकारना
क्या सम्भव है पुराणों की इस वाणी को मानना
कि दीक्षा गुरु तो सिर्फ़ एक ही हुआ करता है
जो कई कई गुरु किया करते हैं
घोर नरक मे पड़ा करते हैं
मगर कही नहीं वर्णित किया गया
यदि गुरु ने जघन्य कर्म किया
तो कैसे उसके द्वारा दिये मन्त्र में
शक्ति हो सकती है
जो खुद ही गलत राह का राही हो
उसकी बात मे कहाँ दम हो सकता है
जिसकी आस्था एक बार खंडित हो गयी हो
कैसे उसकी नये सिरे से जुड़ सकती है
कैसे किसी पर फिर विश्वास कर
एक और आस्था के वटवृक्ष को
उगाया जा सकता है
गर कोशिश कर किसी पर
विश्वास कर नये सिरे से कोई जुड़ता है
तो पुराणों मे वर्णित प्रश्न उठ खड़ा होता है
'एक ही दीक्षा गुरु होता है '
ऐसे में
साधक तो भ्रमित होता है
कहाँ जाये
किससे मिले सही उत्तर
प्रश्न दस्तक देता प्रहार कर रहा है
क्या पुराण में जो पढ़ा सुना
उसे माने या
जो आँख से देख रहा है
और जिसे उसकी अंतरात्मा
नहीं स्वीकारती
उस पर चले
ये कैसा धर्म के नाम पर
होता पाखण्ड है
जिसने मानवता को किया हतप्रभ है
सुना है
धर्म तो सत्य का मार्ग दिखलाता है
फिर ये कैसा मार्ग है
जहाँ आस्था और विश्वास से परे
मानवता ही शोषित होती है
और उस पर चलने वाले को
धर्मविरुद्ध घोषित करती है
सोच का विषय बन गया है
चिंतन मनन फिर करना होगा
धर्म की परिभाषाओं को फिर गुनना होगा
वरना
अनादिकाल से चली आ रही
संस्कृति से हाथ धोना होगा
झूठ सच
धर्म आस्था विश्वास
गुरु शिष्य संबंध
महज आडम्बर न बन जाये
वो वक्त आने से पहले
विश्लेषण करना होगा
और धर्म का पुनः अवलोकन करना होगा
उसमे वर्णित संस्कारों को
पुनः व्यख्यातित करना होगा
तर्क और कसौटियों की गुणवत्ता पर
खरे उतरे जाने के बाद
फिर शायद एक बार फिर आस्था का वृक्ष अपनी जड़ें जमा सके
और मेरे देश की संस्कृति और संस्कार बच सकें
एक कशमकश उत्तर की चाहत में भटकती है ………
4 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (07-05-2014) को "फ़ुर्सत में कहां हूं मैं" (चर्चा मंच-1605) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अति सुन्दर रचना
सच कहा आपने वेद पुराणों में दिए गए नीतियों,संस्कृतियों की व्याख्या की आधुनिक समय के मापदंडों के अनुसार पुनर्निरीक्षण और पुनर्व्याख्या की आवश्यकता है अन्यथा एक दिन ये सब केवल कपोल अल्पित कहानियां बनकर रह जायेंगे !
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महसूस करें तो आस्था व विश्वास पर ही टिकी है सारी कायनात बहुत सुन्दर प्रस्तुति
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