जिस तरह
संदेह के बादलों से नहीं नापी जा सकती पृथ्वी की गहराई
दम्भ के झूठे रागों से नहीं बनायीं जा सकती मौसिकी
उसी तरह
संदिग्ध की श्रेणी में रखा है खुद को
तुम्हें चाहना
फिर भी न पूरा पाना
एक कमी का अधूरा रहना
और फिर भटकना उम्र के बीहड़ में
प्रेम का इकतारा ले
नहीं हूँ सिर्फ इसी से संतुष्ट
चाहने की प्रक्रिया के परिमाण को
मापने के यंत्र नहीं होते
तो कैसे संभव है अधूरापन
जब तक न तुम्हें पूरी तरह जान लूँ
खोज के बिन्दुओं पर लगे पहरों को
छिन्न भिन्न करने को आतुर
जब भी पहुँचती हूँ निकट
एक संदेह की मछली कुलबुलाती है
और तुम हो जाते हो
फिर पहुँच से दूर …… बहुत दूर
पास और दूर होने की प्रक्रिया में
कभी बनाते हो खुद को संदिग्ध
तो कभी छोड़ देते हो सारे संदेह के तीर मेरी ओर
खोज , परिमाण , चाहत , संदेह और तुम
मेरी विध्वंसता तक
मुझे ही कर देते हैं खड़ा शक के घेरे में
जो तुम से होकर गुजरता है
और हो जाती हूँ मैं निःसहाय
सच और झूठ की वेदी पर
और पड़ जाती हूँ सोच में
किसी को चाहना और पाना एक बात हो सकती है
मगर यदि किसी को जानना हो
संदेह की सीपियाँ राहों में बिखरी हों
और पहचान के चिन्ह प्रश्नचिन्ह बने खड़े हों
तो शक की ऊँगली खुद की तरफ ही क्यों उठी होती है .......... माधव !!!
संदिग्ध तुम हो या मैं………… पशोपेश में हूँ
6 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (28-10-2014) को "माँ का आँचल प्यार भरा" (चर्चा मंच-1780) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
छठ पूजा की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्यार में समर्पण है,संदेह कहां?
बहुत सुन्दर और प्रभावी अभिव्यक्ति...
मन के अंदर द्वंद्व कई प्रश्न उठा जाते हैं अक्सर
बहुत सुन्दर !
Sunder prastuti !!
हम क्या जाने , संदेह उसे हम पर या हमें उस पर :)
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