मोहन !
कल जो तुम मुस्कुराते मिले
मेरी जन्मों की साध मानो पूर्ण किए
अब खोजती हूँ मुस्कुराने के अर्थ
जाने कौन से भेद थे छुपे
अटकलें लगाती हूँ
मगर प्यारे
तुम्हारे प्रेम की न थाह पाती हूँ
जाने कौन सी अदा भा गयी
जो इस गोपी पर दया आ गयी
प्रेम की यूं बाँसुरी बजायी
मेरी प्रीत दौड़ी चली आई
और न कुछ मेरी पूँजी है
ये अश्रुओं की खेती ही बीजी है
जो तुम इन पर रिझो बिहारी
तो अश्रुहार से करूँ श्रृंगार मुरारी
हे गोविन्द! हे केशव! हे माधव !
अब विनती यही है हमारी
छ्वि ऐसी ही दिखलाया करना
जब जब निज चरणन में बुलाया करना
नैनन में जो बसी छवि प्यारी
मैं भूली अपनी सुध सारी
प्रीतम बस यही है मेरी प्रीत सारी
तुझ पर जाऊँ तन मन से बलिहारी
(कल शनि अमावस्या पर बाँके बिहारी के दर्शनों का उनकी कृपा से सौभाग्य प्राप्त हुआ और मेरा मन खोजने लगा अकारण करुणा वरुणालय की कृपा का कारण )
4 टिप्पणियां:
अतिसुन्दर रचना मेरे स्वागत हैँ पधारै
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-11-2014) को "शुभ प्रभात-समाजवादी बग्घी पे आ रहा है " (चर्चा मंच 1807) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कृष्ण की मोहक छवि समाये , मुस्कान में भी भेद छुपाये कृष्णमय करती प्यारी रचना
कृष्ण की छवि मन में बसाए उनकी मुस्कार के अर्थ की अटकल लगाए कृष्णमय करती प्यारी रचना .
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