"मैं " शब्द एक अर्थ दो
एक अर्थ मे " मैं " अहम को पोषित करता है
तो दूजे में स्वंय की खोज करता है
बस फ़र्क है तो सिर्फ़ उसके अर्थों में ,
उसे समझने में
उसे जानने में
और जिस दिन ये पर्दा हटता है
जिस दिन द्वैत की चादर हटती है
और मन की , आत्मा की खिडकी खुलती है
वहाँ ना कोई " मैं " रहता है
ना अहंकारी " मैं" और ना सात्विक " मैं "
सब आत्मविलास ही लगता है
और जो इस " मैं " का सौन्दर्य होता है
जो इस " मैं " की गहराई होती है
वहाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ आनन्दानुभूति ही होती है
जरूरत है तो बस अहम से पोषित " मैं " पर पुनर्चिन्तन करने की
1 टिप्पणी:
सुन्दर प्रस्तुति...
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