मन की वीणा विकल हो रही है 
तुम्हारे दरस की ललक हो रही है 
 जाएँ तो जाएँ कहाँ गुरुवर 
ज्ञान का दीप जलाएं कहाँ 
आत्मदीप अब जलाएं कहाँ 
चरणकमल कृपा अब पायें कहाँ 
मेरे मन में बसा अँधियारा था 
गुरु आपने ही किया उजियारा था 
अब वो प्रेमसुधा हम पायें कहाँ 
कौन प्रीत की रीत निभाये यहाँ 
मेरे मन की तपन कौन बुझाए यहाँ 
गुरुवर कौन जो तुमसे मिलन कराये यहाँ 
ये बेकल मन की अटपटी भाषा 
तुम्हारे बिन कोई समझ न पाता 
अब ये भावों की समिधा चढ़ाएं कहाँ 
गुरुदरस की लालसा मिटायें कहाँ


4 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (01-08-2015) को "गुरुओं को कृतज्ञभाव से प्रणाम" {चर्चा अंक-2054} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
गुरू पूर्णिमा तथा मुंशी प्रेमचन्द की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sundar !
एक गुरु तो मन के भीतर भी होता है ... जो खुद को पुनः प्रेरणा देता है ...
सुन्दर रचना है ...
सुन्दर रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक शुभकामनाएँ
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