वो संवाद के दिन थे या नहीं
मगर संवाद जारी था
मौन का मुखर संवाद
बेशक आशातीत सफलता न दे
मगर बेचैनियों में इजाफा कर देता था
और संवाद मुकम्मल हो जाता था
मगर आज
मौन , मौन है
जाने किस मरघटी खामोशी ने घेरा है
जहाँ सृष्टि है या आँखों से ओझल
इसका भी पता नहीं
फिर क्रियाकर्म की रस्म कोई कैसे निभाये
तो क्या
मौन की ये ब्राह्मी स्थिति ही मुक्तिबोध है ?
3 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 31 - 03 - 2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2298 में दिया जाएगा
धन्यवाद
बेहतर लिखा आपने , शब्दों को तराश कर लिखा
उम्दा
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