सब तहस नहस कर देना
नेस्तनाबूद कर देना
बर्बाद कर देना
देकर सब छीन लेना
कोई तुमसे सीखे
बर्दाश्त जो नहीं होता किसी का सुख
फिर वो लौकिक हो या पारलौकिक
कर ही देते हो सब ख़त्म
उस पर चाहते हो
सब तुम्हें चाहें
आखिर क्यों ?
तुम निर्मोही
तो कुछ निर्मोह का अंश हम में भी आना ही हुआ
तो क्या हुआ
जो अब तुम्हारी निर्मोहता का उत्तर निर्मोहता से हमने दिया
अपनी बारी कैसे खुद को बरी करते हो
जबकि
सभी घटनाओं , घटनाचक्रों के
आदि मध्य और अंत तुम ही होते हो
जब तुम छूट नहीं देते
तो हमसे क्यों उम्मीद रखते हो
मिटाना तुम्हारी आदत है
फिर वो कोई बात हो , जीवन या हस्ती
तो रहना तुम अपने कर्म में संलग्न
जानती हूँ
कर रहे हो पन्ने को धीमे धीमे कोरा
मिटाकर बिगाड़कर
तो फर्क नहीं पड़ता अब
जान जो गयी हूँ
तुम्हें और तुम्हारे व्यवहार को
इसलिए नहीं होती विकल अब आत्मा
नहीं गिरती उस पर
कोई परछाईं
कोई शब्द कोई भाव
जीना और मरना ही है बस सत्य
और तुम या तुम्हारा होना है
सिर्फ माया मोह , एक सब्जबाग , एक दृष्टिभ्रम
तभी मिटा दिया मुझमे से अजस्र बहता प्रेम का सोता भी
अब पुकार है न टंकार है कोई
स्पन्दन्हीन निश्चेष्ट निष्क्रियता ही बन चुकी है जीने का विकल्प
तुम्हारा होना या न होना अब मायने नहीं रखता
तुमसे मोहब्बत एक हास्य के सिवा कुछ भी तो नहीं ...
2 टिप्पणियां:
बहुत ही बेहतरीन रचना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (29-07-2016) को "हास्य रिश्तों को मजबूत करता है" (चर्चा अंक-2418) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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