मैं निर्जन पथगामी
अवलंब तुम्हारा चाहूँ
साँझ का दीपक
स्नेह की बाती
तुमसे ही जलवाऊँ
मैं, तुमसी प्रीत कहाँ से पाऊँ
मन मंदिर की
देह पे अंकित
अमिट प्रेम की लिपि
फिर भी खाली हाथ पछताऊँ
मैं, रीती गागर कहलाऊँ
जो पाया सब कुछ खोकर
खुद से ही निर्द्वंद होकर
तर्कों के महल दोमहलों में
पग पग भटकती जाऊं
मैं, जीवन बेकार गवाऊं
स्नेहसिक्त से स्नेहरिक्त तक
तय हुआ सफ़र
कोरा कागज कोरा शून्य बन
किस जोगी से आकलन करवाऊं
मैं, कैसे आत्ममंथन कर पाऊँ
आत्मबोध जीवन दर्शन के
कुचक्र में फंसकर
वो कौन सा राग है
जिसका मल्हार बन जाऊँ
जो मन की तपोभूमि पर
मैं, तपस्या कर रहा जोगी चहकाऊँ
अवलंब तुम्हारा चाहूँ
साँझ का दीपक
स्नेह की बाती
तुमसे ही जलवाऊँ
मैं, तुमसी प्रीत कहाँ से पाऊँ
मन मंदिर की
देह पे अंकित
अमिट प्रेम की लिपि
फिर भी खाली हाथ पछताऊँ
मैं, रीती गागर कहलाऊँ
जो पाया सब कुछ खोकर
खुद से ही निर्द्वंद होकर
तर्कों के महल दोमहलों में
पग पग भटकती जाऊं
मैं, जीवन बेकार गवाऊं
स्नेहसिक्त से स्नेहरिक्त तक
तय हुआ सफ़र
कोरा कागज कोरा शून्य बन
किस जोगी से आकलन करवाऊं
मैं, कैसे आत्ममंथन कर पाऊँ
आत्मबोध जीवन दर्शन के
कुचक्र में फंसकर
वो कौन सा राग है
जिसका मल्हार बन जाऊँ
जो मन की तपोभूमि पर
मैं, तपस्या कर रहा जोगी चहकाऊँ
3 टिप्पणियां:
जब सबकुछ उस परम परमात्मा का है फिर कैसे कर आत्ममंथन कर सकता है कोई
बहुत सुन्दर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (10-07-2017) को "एक देश एक टैक्स" (चर्चा अंक-2662) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जिसने दिया उसी को सर्मपित। फिर आत्म मंथन की आवश्यकता ही क्यों?
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