उलझनों में उलझी इक डोर हूँ मैं या तुम
नही जानती
मगर जिस राह पर चली
वहीं गयी छली
अब किस ओर करूँ प्रयाण
जो मुझे मिले मेरा प्रमाण
अखरता है अक्सर अक्स
सिमटा सा , बेढब सा
बायस नहीं अब कोई
जो पहन लूँ मुंदरी तेरे नाम की
और हो जाऊँ प्रेम दीवानी
कि
फायदे का सौदा करना
तुम्हारी फितरत ठहरी
और तुम्हें चाहने वाले रहे
अक्सर घाटे में
यहाँ कसौटी है
तुम्हारे होने और न होने की
तुम्हारे मिलने और न मिलने की
रु-ब-रु
कि तत्काल हो जाए पूर्णाहूति
प्रश्न हैं तो उत्तर भी जरूर होंगे
कहीं न कहीं
तुम महज ख्याल हो या हकीकत
कि
इसी कशमकश में अक्सर
गुनगुनाती हूँ मैं
तेरे बिना ज़िन्दगी से कोई शिकवा तो नहीं
तेरे बिना ज़िन्दगी भी लेकिन ज़िन्दगी तो नहीं...माधव
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
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2 टिप्पणियां:
माधव के में रची बसी रचना ... सुन्दर रचना ...
बढ़िया। हमेशा की तरह।
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