कोठी कुठले भरे छोड़ इक दिन चले जाना रे
मनवा काहे ढूँढे असार जगत में ठिकाना रे
चुप की बेडी पहन ले प्यारे
हंसी ख़ुशी सब झेल ले प्यारे
तेरी मेरी कर काहे भरता द्वेष खजाना रे
कोठी कुठले भरे छोड़ इक दिन चले जाना रे ........
मोह ममता को कर दे किनारे
कुछ खुद के लिए जी ले प्यारे
फिर तो बाँध बोरिया बिस्तर कूच कर जाना रे
कोठी कुठले भरे छोड़ इक दिन चले जाना रे ........
ज्यों रात और दिन के लगे हैं डेरे
त्यों जन्म मरण के लगे हैं फेरे
फिर काहे रोना और काहे का घबराना रे
कोठी कुठले भरे छोड़ इक दिन चले जाना रे........
इस तरह
वीतरागी हुआ जाता है मन ये
जाने किस गाँव ठौर पाता है ये
इस तरह
वीतरागी हुआ जाता है मन ये
जाने किस गाँव ठौर पाता है ये
2 टिप्पणियां:
बहुत खूब!!
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