अपने तराजुओं के पलड़ों में
वक्त के बेतरतीब कैनवस पर
हम ही राम हम ही रावण बनाते हैं
जो चल दें इक कदम वो अपनी मर्ज़ी से
झट से पदच्युतता का आईना दिखा सर कलम कर दिए जाते हैं
ये जानते हुए कि
साम्प्रदायिकता का अट्टहास दमघोंटू ही होता है
नहीं रख पाते हम
अभिव्यक्ति के खिड़की दरवाज़े खुले
साम्प्रदायिकता का अट्टहास दमघोंटू ही होता है
नहीं रख पाते हम
अभिव्यक्ति के खिड़की दरवाज़े खुले
आओ चलो
कि पतंग उड़ायें अपनी अपनी बिना कन्नों वाली
कि नए ज़माने के नए चलन अनुसार
जरूरी है प्रतिरोध के दांत दिखाना भर
क्योंकि
आगे के गणित की परिकल्पनाओं पर नहीं है हक़ किसी का
कि पतंग उड़ायें अपनी अपनी बिना कन्नों वाली
कि नए ज़माने के नए चलन अनुसार
जरूरी है प्रतिरोध के दांत दिखाना भर
क्योंकि
आगे के गणित की परिकल्पनाओं पर नहीं है हक़ किसी का
सिसकना नियति है
फिर लोकतंत्र हो या अभिव्यक्ति .........
फिर लोकतंत्र हो या अभिव्यक्ति .........
2 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना ... आओ कही पतंग उडाये ... अति भाव गhttp://netlife4us.com/- digital hacks
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